Sunday, November 6, 2016
खुशबू
Saturday, October 22, 2016
एक चिड़िया मरी पड़ी थी
बलखाती थी
वह हर सुबह
धूप से बतियाती थी
फिर कुमुदिनी-सी
खिल जाती थी
गुनगुनाती थी
वह षोडसी
अपनी उम्र से बेखबर थी
वह तो अनुनादित स्वर थी
सहेलियों संग प्रगाढ़ मेल था
लुका-छिपी उसका प्रिय खेल था
खेल-खेल में एक दिन
छुपी थी इसी खंडहर में
वह घंटों तक
वापस नहीं आई थी
हर ओर उदासी छाई थी
मसली हुई
अधखिली वह कली
घंटों बाद
शान से खड़े
एक बुर्ज के पास मिली
अपनी उघड़ी हुई देह से भी
वह तो बेखबर थी
अब कहाँ वह भला
अनुनादित स्वर थी
रंग बिखेरने को आतुर
अब वह मेहन्दी नहीं थी
अब वह कल-कल करती
पहाड़ी नदी नहीं थी
टूटी हुई चूड़ियाँ
सारी दास्तान कह रही थीं
ढहते हुए उस खंडहर-सा
वह खुद ढह रही थी
चश्मदीदों ने बताया
जहाँ वह खड़ी थी
कुछ ही दूरी पर
एक चिड़िया मरी पड़ी थी
Wednesday, October 19, 2016
कोखजने का दम तोड़ना ---

मैंने देखा है
अपने जवान पश्नों को
उन बज्र सरीखे दीवारों से टकराकर
सर फोड़ते हुए
जिसके पीछे अवयस्क बालाएँ
अट्टहासों की चहलकदमी के बीच
यंत्रवत वयस्क बना दी जाती है
और
बेशरम छतें भरभराकर ढहती भी नहीं हैं
मैनें देखा है
आक्सीजन की आपूर्ति बन्द कर देने के कारण
अपने नवजात, नाजुक और अबोध
प्रश्नों को दम तोड़ते हुए
अक्सर मैं इनके शवों को
कुँवारी की कोख से जन्मे शिशु-सा
कंटीली झाड़ियों के बीच से उठाता हूँ
बहुत त्रासद है
कोखजने को दम तोड़ते हुए देखना
और फिर खुद ही दफनाना
हिचकियाँ भी तो प्रश्नों का रूपांतरण ही हैं
तभी तो मैं इन्हें जन्म ही नहीं लेने देता
और आँसुओं की हर सम्भावना का
गला घोट देता हूँ
जी हाँ! यही सच है
अब मैं अपने तमाम प्रश्नों का गला
मानस कोख में ही घोट देता हूँ
मेरा अगला कदम
उस कोख को ही निकाल फेंकना है
जहाँ से इनका जन्म सम्भावित है
Tuesday, January 4, 2011
अफ़वाह है जिन्दगी… Life is rumor
Monday, July 26, 2010
ताश के महल सा कांपता है मकाँ ~~
परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे
.
सिहर जाती हैं शाखों पे फुनगियाँ
लोग बेवजह पत्थर चला रहे होंगे
.
यूँ ही नहीं गिरते शाख़ों से हरे पत्ते
इनकी जड़ों को कीड़े खा रहे होंगे
.
ख़ौफजदा हैं पत्थर भी इस पहाड़ के
संगतराशों को इर्द-गिर्द पा रहे होंगे
.
आईने ने आज सच कह दिया है
वे यकीनन तिलमिला रहे होंगे.
.
उनके जिस्म की तपिश बढ़ गई है
सूरज से वे नज़रें मिला रहे होंगे.
.
ताश के महल सा कांपता है मकाँ
नींव को कुछ लोग हिला रहे होंगे
Monday, June 21, 2010
कल ही दाह संस्कार किया गया उसका ~~
तकरीबन हर रोज़ उसे
धूल में मिलाया गया,
साजिशन
उसे जहर पिलाया गया,
उसके गले में
फन्दा डाला गया;
एनकाउंटर उसका हुआ,
कुचला गया उसको
गाड़ियों के टायरों से,
अक्सर वह घिरा मिला
स्वयंभू कायरों से,
मारा गया तो चीखा वह
चीख के कारण फिर मार पड़ी,
अट्टहास की ध्वनियों ने
उसका पीछा किया
और फाईनली कल ही तो
दाह संस्कार किया गया उसका,
उसकी राख तक
तिरोहित कर दी गयी गंगा में.
.
पर आज फिर वह
अनाहूत सा ज़िन्दा मिला,
फिर उसकी कोख में
एक अधजला परिन्दा मिला,
कोशिश जारी है
फिर से उसे मौत की घाट
उतारने की,
उसे फिर मारा जायेगा
उसे फिर जिन्दा जलाया जायेगा
उसे फिर ......
उसे फिर ......
Tuesday, June 15, 2010
शाम की रोटियों की चिंता ~~
लोग पागल हो रहे हैं
मेरे अभिनय को देखने के लिये
मैनें अपने अभिनय का
लोहा जो मनवा लिया है,
मैं रूदन में सिद्धहस्त हूँ
तभी तो दिलों में पैबस्त हूँ,
मैं रावण को मात देता हूँ
अट्टहास के मामले में,
मैं भावनाओं का प्रवाह कर देता हूँ
संत्रास के मामले में,
मैं जब डायलाग बोलता हूँ तो
सीटियाँ बजने लगती हैं
मेरे प्रणय निवेदन के अंदाज़ से
घंटियाँ बजने लगती हैं.
.
लोगों को क्या पता
मैं ये सब कर रहा हूँ
सिर्फ और सिर्फ
शाम की रोटियों की चिंता से
खुद को महफ़ूज रखने के लिये,
और फिर मेरा संचालन तो
नेपथ्य में बैठे
उस व्यक्ति के द्वारा हो रहा है
जिसकी संतुष्टि के बाद ही
उसकी जेब में ठुसे पड़े
नोटों के बंडल में से
कुछ नोट मेरी मुट्ठी में आयेंगे.
चित्रों में : मैं खुद उन दिनों
Thursday, June 3, 2010
तुम श्वासों की गति पर ध्यान न देना ~~
तुम तलाशना मत
अपने खोये 'खोयेपन' को
उसे तो
मैनें सहेज लिया है,
तुम श्वासों की गति पर भी
ध्यान न देना
मेरे श्वासों संग अनुनादित होकर
इनका तीव्र होना तय है,
कोई खास बात नहीं है
कमरे में रखी मोमबत्ती का
धीरे-धीरे पिघलना
यह पिघलन असर है
जलती लौ की तपिश का,
कुछ शब्द लिखना तुम
मेरी पीठ पर
मैं उन्हें अनुमान से
पढ़ना चाहता हूँ
वजह न होते हुए भी
बेशक तुम रूठ जाना
मनाना सीखा है
असर देखूँगा
बस्स,
तुम उदास मत होना
यहीं मैं चूक जाऊँगा
और तुम्हारे साथ साथ
मैं भी उदास हो जाऊँगा
मैं भी ...
Monday, May 24, 2010
पत्नी रोज़ सामानों की लिस्ट पकड़ा देती है लौटते समय लाने के लिये ~~
और अक्सर
पूरी की पूरी व्यवस्था को
नकारने के बावजूद
न केवल उस व्यवस्था में बने रहने की
मज़बूरी होती है
वरन
व्यवस्था को व्यवस्थित करने में
धूरी बन जाना पड़ता है,
बहाने और समझौते
बन चुके हैं हमारी आदत
और हम खामोशी से देखते हैं
स्याह बादलों का जमघट
सिद्धांतो और आदर्शों की
अनवरत शहादत,
ऐसा भी नहीं कि
कोई प्रतिकार ही न हो
अक्सर हम
रात के सन्नाटे में
लच्छेदार शब्दों में
इन सबके ख़िलाफ रिसाले भी रचते हैं
सुबह होते ही
न जाने कैसे
इन रिसालों के स्वर
अनायास बदल जाते हैं,
बदले भी क्यूँ नहीं
पत्नी रोज़ ही तो
सामानों की लिस्ट पकड़ा देती है
लौटते समय बाज़ार से लाने के लिये.
Friday, May 7, 2010
नपुंसकलिंग !!
Friday, April 30, 2010
कतवारू गिनता है छाले ~~
अरमानों के इर्द गिर्द मकड़ी के जाले
चन्दन सा मन पर नाग काले-काले
.
सूरज से बहस करके लौटता है रोज
साझ ढलते कतवारू गिनता है छाले
.
सार्थक बहस तो बगले झाँकती रही
अनर्गल प्रलापों के छप गये रिसाले
.
इनकी शिकस्त तो हो ही नहीं सकती
हार की आहट से ये बदल लेंगे पाले
.
अभिव्यक्ति की आजादी है लोकतंत्र में
ये अलग बात है कि मुँह पर हैं ताले
Sunday, April 25, 2010
कईसे खेतवा से बोझा ढोवाई (भोजपुरी)
हिलत नाहीं पेड़वा क डाल बा
गरमी से त जियरा बेहाल बा
कईसे खेतवा से बोझा ढोवाई
कईसे बतावा अब दऊरी दवाई
सूखाय गयल देखा इ ताल बा
हिलत नाहीं पेड़वा क डाल बा
गरमी से त जियरा बेहाल बा
.
झर गयल अमवा क टिकोरवा
कटहर चोराय लेहलेस चोरवा
कैसों रोटी क जुगाड़ हो गयल
त रीष गयल रहरी क दाल बा
हिलत नाहीं पेड़वा का डाल बा
गरमी से त जियरा बेहाल बा
.
उधार जिनगी क भार हो गयल
लहुरा लड़कवा बेमार हो गयल
मड़ई क छानी छवाई अब कईसे
बरधा के भी जड़ावे के नाल बा
हिलत नाहीं पेड़वा का डाल बा
गरमी से त जियरा बेहाल बा
Tuesday, April 20, 2010
याद करने लगे हैं लोग पिछला दंगा ~
मत लेना तुम उससे भूलकर भी पंगा
.
वह तो जमीर बेचकर आया है भाई
उसे क्या वह पल में उठा लेगा गंगा
.
तोड़ता है क्योंकि वह खुद ही टूटा है
देखने में क्यूँ न दिखे वो भला-चंगा
.
सलीके की बात करता है देखिये तो
जिसकी जिन्दगी ताउम्र रही बेढंगा
.
अनजान लोग दिख रहे है शहर में
याद करने लगे हैं लोग पिछला दंगा
Sunday, April 18, 2010
घरौन्दे की नींव आज रखिये
हथेली पर अपने ताज़ रखिये
कुछ तो नया अन्दाज़ रखिये
.
आप तो आप हैं, नाम बेशक
रीना, मेरी या शहनाज़ रखिये
.
ज़माना कान लगाये बैठा है
दफ़्न अपने कुछ राज़ रखिये
.
बेसुरापन है, शोर का मंजर है
संग अपने अपना साज़ रखिये
.
वज़ूद सलामत रखनी हो तो
निगाहों में आप बाज़ रखिये
.
सराहे कोई, क्यों है इंतजार
खुद ही खुद पर नाज़ रखिये
.
कल का इंतजार क्यूँ है भला
घरौन्दे की नींव आज रखिये
Friday, April 16, 2010
चमक अन्धेरों की ~~
हाँ देखा है मैनें
धुन्धलाते उजाले;
चमक अन्धेरों की
कौतूहल, जिज्ञासा
आंसू और दिलासा
जानता है पर
मानता कौन है !!
राजनीति के रिश्ते
रिश्तों की राजनीति
मजहब, सम्प्रदाय
चुस्कियाँ और चाय
भागते दिन
ठहरती रात
शुरू भी नहीं होती कि
खत्म हो जाती बात
दिखने को
खून के रिश्ते
पर पल पल
रिश्तों का खून
चमचमाते खंजर
श्मशानी मंजर
आस्तीन के साँप
साँपों के दंश
पलांश में मिटते
वंश के वंश
जमीं पर पांव
पांव में छाले
हाँ देखा है मैने
धुन्धलाते उजाले !
Tuesday, April 13, 2010
बिना तेल का तिल मिला ~~
बेवजह तो नहीं
वह रहा है -
तिलमिला,
उसके हिस्से
बिना तेल का
तिल मिला.
****
वह रूठी थी
मैनें तो उसे
मना ली,
पर इसके लिये
मुझको तो
ले जाना पड़ा उसे
मनाली.
Saturday, April 10, 2010
सूरज का महज़ एक तपन ~~
कब तक
सहमीं रहेंगी
नदी के कगारों से
अजस्त्र धारायें
अवरोधों के उस पार
कहीं तो नवल क्षितिज होगा.
.
अन्धेरे के तमाम त्रासदियों को
सहने के बाद
जब भी यह रात ढलेगी;
अंतस के प्राची से
जब भी नूतन भोर झांकेगा,
मैं जानता हूँ
सूरज का महज़ एक तपन
काफी है पिघला देने को
उन गहनतम दीवारों को भी
जो हमें अब तक
बौना बनाये रखे हैं
.
सार्थक प्रयत्न
कभी भी निष्फल नही होता
उजास की किरण
देर-सबेर
हम तक भी पहुँचेगी
आखिर कब तक
गर्म हौसलों को
ठंडी बर्फ़ की परतें
छुपा सकती हैं भला
कब तक ........
(यह रचना सन 1984 मे लिखी थी)
Friday, April 2, 2010
आज पहना दिया उसके गले में किसी और ने हार
आज पहना दिया
उसके गले में
किसी और ने
हार
वह गुमसुम सा
खड़ा है
जिन्दगी को
हार
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
हर्षित हैं शाख पर पत्ते
झूम रही है
डाली
एक अर्से के बाद
तूने फिर से झूला
डाली
Sunday, March 28, 2010
लुटा अपनी रिश्तेदारी में ~~~~
सारी उम्र कटी यूँ तो सिपहसालारी में
मारा गया बेरहमी से मगर वो यारी में
.
इम्तहान तो था महज़ कुछ घंटों का
पूरा साल निकल गया देखो तैयारी में
.
बहुत ढूढ़ा खोया था जो इकलौता बीज
अंकुरित हुआ तो मिला इस क्यारी में
.
बीहड़ों में से हो आया बेखौफ मुसाफिर
लुटा तो आकर वो अपनी रिश्तेदारी में
.
लहुलुहान हर फूल है देखो दुबका हुआ
जब से कैक्टस आ पहुँचा फुलवारी में
.
बेमौत मरा पीठ पर खाकर वो गोली
पेट की खातिर खोखे चुनते चाँदमारी में
.
कितने मासूम परस्त हैं यहाँ के लोग
देखना हो आकर देखो तुम निठारी में
Friday, March 26, 2010
यह मकान बिकने वाला है
इन दीवारों पर
चढ़ा दो
एक और कोट,
नजर नहीं आना चाहिए
इन दीवारों का
कोई खोट.
हो सके तो ढक देना
उस
उखड़े हुए पलस्तर को भी,
छुपा दो उन संत्रासों को
जो इनके जिस्म पर
कील गाड़ने के कारण उगे हैं.
रंग दो -
दर्द की हर लकीर को
मुस्कराते हुए रंगों से,
दिखे नहीं
उन ईंटों की भोथरी शक्लें
जो नींव से जुड़ी हैं
ढक दो
इनकी जर्जरता को
सुन्दर लहरदार टाईलों से
.
भुरभुरापन न दिखे तो
मुझे अब फर्क नहीं पड़ता
इसके भुरभुरे अस्तित्व से भी
क्योंकि अब
यह मकान बिकने वाला है