Monday, April 1, 2019

सैलाब रक्खेंगे -----


ये तुम्हारा भरम है कि वे गुलाब रक्खेंगे
मंजिल से ठीक पहले वे सैलाब रक्खेंगे

हकीकत कही तुमसे रूबरू न हो जाये
तुम्हारे पलको पर अब वे ख्वाब रक्खेंगे
  
औंधे पडे मिलेंगे तुम्हारे सवालो  के तेवर
चाशनी से लिपटे जब वे जवाब रक्खेंगे

रख दो अपनी खिलाफत ताक पर तुम
खिदमत में वे कबाब और शराब रक्खेंगे
  
उनकी मासूमियत पर यकीन कर लेंगे
जब वे अपनी नज़रो में तालाब रक्खेंगे

लाजिमी है इस चमन का यू ही मुरझाना
जब इनकी जडो में आप तेजाब रक्खेंगे

इनकी नज़रो के आंसू भी थम जायेंगे
गर आप अपनी आंखो मे आब रक्खेंगे

8 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

वाह

SushantShankar said...

वाह

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-04-2019) को "मौसम सुहाना हो गया है" (चर्चा अंक-3294) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

कविता रावत said...

उनकी मासूमियत पर यकीन कर लेंगे
जब वे अपनी नज़रो में तालाब रक्खेंगे

...बहुत खूब!

संजय भास्‍कर said...

बेहद ख़ूबसूरत और उम्दा

दिगम्बर नासवा said...

बहुत लाजवाब शेर ... पहले भी जब जब आपको पढ़ा तो इतने ही चुटीले शेर पढ़ने को मिलते थे ... आपका अन्दाज़ कमाल का है ...

देवेन्द्र पाण्डेय said...

वाह!

संजय भास्‍कर said...

लाजवाब शेर