आदमकद होती जा रही हैं
भूखों की शक्लें—
ढक दो रोटियाँ
संस्कारों से।
तारों
के सपने दिखाओ,
इन्हें इनके अपने दिखाओ—
उलझनें और बड़ी करो,
हिन्दू–मुस्लिम में उलझाओ।
इनकी
मुट्ठियाँ पकड़कर
थोड़ी कर दो ऊँची,
बना दो इन्हें—
तख़्तियाँ और कूची।
ये
गुमराह हो जाएँगे—
कपड़े पहना दो खादी के,
तमगे टाँग दो
सजग राष्ट्रवादी के।
जब
ये पूछें—
“कहाँ हैं रोटियाँ?”
कहना—
“तुम्हें रोटियों की पड़ी है?
देखते नहीं—
देश और तुम्हारा धर्म
ख़तरे में है!”
जब
सड़कों पर शोर बढ़े—
नया कोई उत्सव गढ़ देना,
इतिहास की धूल झाड़कर
‘गौरव’ की बातें जड़ देना।
और
जब ये माँगें ‘इंसाफ़’—
तुम ‘इंतकाम’ की आग लगा देना,
कह देना—
“तुम सिपाही हो देश के,”
और त्याग का
एक भारी पत्थर
सीने पर रख देना।

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