परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे
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सिहर जाती हैं शाखों पे फुनगियाँ
लोग बेवजह पत्थर चला रहे होंगे
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यूँ ही नहीं गिरते शाख़ों से हरे पत्ते
इनकी जड़ों को कीड़े खा रहे होंगे
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ख़ौफजदा हैं पत्थर भी इस पहाड़ के
संगतराशों को इर्द-गिर्द पा रहे होंगे
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आईने ने आज सच कह दिया है
वे यकीनन तिलमिला रहे होंगे.
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उनके जिस्म की तपिश बढ़ गई है
सूरज से वे नज़रें मिला रहे होंगे.
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ताश के महल सा कांपता है मकाँ
नींव को कुछ लोग हिला रहे होंगे
52 comments:
भाई जी
मतला ही अपने आप में पूरी बात है:
परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे
अहा!! आनन्द आ गया...बेहतरीन!
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शानदार रचना ।समाज का काला रूप ।
परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे
परिंदे तो बेचारे सारे मारे गये या डरकर मरने की कगार पर हैं ..
इस देश व समाज में अब तो सिर्फ गिद्ध ही गिद्ध नजर आ रहें है ,लेकिन मनुष्यों के रूप में ...
@ ख़ौफजदा हैं पत्थर भी इस पहाड़ के
संगतराशों को इर्द-गिर्द पा रहे होंगे
ये पंक्तियाँ बहुत पसन्द आईं। भाव और अर्थों की गहराई अद्भुत है।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे...
बहुत गहराई है आपके इस शेर में ..
दादी कहा करती थी 84 लाख योनियों के बाद ईश्वर मनुष्य जन्म देता है ...आजकल जानवर कम हो गए हैं ...वे इंसानों के रूप में जन्म लेने लगे हों शायद ...!
परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे
शानदार रचना । पूरी ग़ज़ल ही बढ़िया है ।
आपका अन्दाज़ ए बयाँ बड़ा सुलझा हुआ लगता है। हमेशा की तरह बेहतरीन गज़ल।
परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे
शानदार गज़ल
यूँ ही नहीं गिरते शाख़ों से हरे पत्ते
इनकी जड़ों को कीड़े खा रहे होंगे
वर्मा जी बहुत दिनों के बाद आपको पढ़ रहा हूँ..वाकई बेहतरीन..सुंदर भाव से सजी एक सटीक रचना....आभार वर्मा जी
बहुत ही ज़बरदस्त ग़ज़ल, बहुत खूब!
सुंदर व आकर्षित करता शीर्षक .... और बहुत ही सुंदर ग़ज़ल....
यूँ ही नहीं गिरते शाख़ों से हरे पत्ते
इनकी जड़ों को कीड़े खा रहे होंगे
... shaandaar
ताश के महल सा कांपता है मकाँ
नींव को कुछ लोग हिला रहे होंगे
बहुत खूबसूरत गज़ल...बहुत सी विसंगतियों को कह दिया आपने ...
Har sher apne aapme mukammal hai!
इस बार के ( २७-०७-२०१० मंगलवार) साप्ताहिक चर्चा मंच पर आप विशेष रूप से आमंत्रित हैं ....आपकी उपस्थिति नयी उर्जा प्रदान करती है .....मुझे आपका इंतज़ार रहेगा....शुक्रिया
आपकी चर्चा कल के चर्चा मंच पर है
यूँ ही नहीं गिरते शाख़ों से हरे पत्ते
इनकी जड़ों को कीड़े खा रहे हों
waah
बहुत गहरे भाव समेटे है रचना .
परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे
बहुत ही बेहतरीन पंक्तियां, ।
उनके जिस्म की तपिश बढ़ गई है
सूरज से वे नज़रें मिला रहे होंगे.
har pankti .."waah' ki haqdaar hai :)
har pankti kamal
परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे .
सिहर जाती हैं शाखों पे फुनगियाँ
लोग बेवजह पत्थर चला रहे होंगे
आज के हालात का सजीव चित्रण कर दिया।
हर शेर एक नयी कहानी बयाँ कर रहा है।
किस किस शेर की तारीफ़ करूँ ।
समाज का कडवा सच दिखा दिया।
शानदार रचना
ख़ौफजदा हैं पत्थर भी इस पहाड़ के
संगतराशों को इर्द-गिर्द पा रहे होंगे
वर्मा जी ... कौन से एक शेर का चुनाव करूँ ... सब के सब आज के क्रूर सत्य को बयान कर रहे हैं ... क्या ग़ज़ब के शेर हैं ... बेहद यथार्थ में डूब कर लिखे हुवे ...
Renu Sharma has left a new comment on your post "ताश के महल सा कांपता है मकाँ ~~ ":
varma ji namaskar
tash ke mahal sa
kanpata hai makan
neenv ko kuchh log
hila rahe honge
bahut hi khoob likha hai
आप की इस ग़ज़ल में विचार, अभिव्यक्ति शैली-शिल्प और संप्रेषण के अनेक नूतन क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं।
बेहतरीन रचना, धन्यवाद.
Pata nahi aapko aise alfaaz kahan se soojh jate hain...ham to padhke dang rah jate hain.
सिहर जाती हैं शाखों पे फुनगियाँ
लोग बेवजह पत्थर चला रहे होंगे
ख़ौफजदा हैं पत्थर भी इस पहाड़ के
संगतराशों को इर्द-गिर्द पा रहे होंगे
वाह.यूँ ही लिखते रहिये.
एक-एक शेर लाजवाब...
बेहतरीन ग़ज़ल....
ख़ौफजदा हैं पत्थर भी इस पहाड़ के
संगतराशों को इर्द-गिर्द पा रहे होंगे
सागर सी गहरी बात मन में भी हलचल पैदा कर गयी
आईने ने आज सच कह दिया है
वे यकीनन तिलमिला रहे होंगे.
क्या खूब कही है जम गयी
ताश के महल सा कांपता है मकाँ
नींव को कुछ लोग हिला रहे होंगे
बहुत अच्छी रचना!!!
हमेशा की तरह बेहतरीन .........
वाह! क्या बात है! बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ उम्दा रचना लिखा है आपने!
हर शेर में बहुत गहराई है.
सुंदर रचना.
सिहर जाती हैं शाखों पे फुनगियाँ
लोग बेवजह पत्थर चला रहे होंगे
इस गज़ल का हर शेर कुछ न कुछ अलग बयान कर रहा है...अलग अलग परिस्थितियों को ले कर बुनी अच्छी गज़ल..
बेहतरीन रचना ।
माफी चाहता हूँ कि बहुत देर से पढ़ने आ पाया इस बहुत ही शानदार ग़ज़ल को पढ़ने को...
यूँ ही नहीं गिरते शाख़ों से हरे पत्ते
इनकी जड़ों को कीड़े खा रहे होंगे
जोरदार, जबरदस्त प्रहार ।
bauhat acchi
वर्माजी बहुत दिनों के बाद इतनी बेहतरीन गज़ल पढने को मिली ! हर शेर की जितनी तारीफ़ की जाए कम है ! देर से पढ़ पाई इसका अफ़सोस है ! बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं !
"आईने ने आज सच कह दिया है
वे यकीनन तिलमिला रहे होंगे !"
आनंद आ गया वर्मा जी ! इस प्यारी रचना के लिए शुभकामनायें
varma ji ,
bahut khoob , kya baat hai , wah gazal ko aaj padhkar dil jhoom utha hai , badhayi
हुज़ूर मोहतरम.....
बेहतरीन शेरोन से सजी इस ग़ज़ल को पढने के बाद बहुत देर तक सोचता रहा...किस तरह ग़ज़ल को अंजाम तक पहुँचाया है
परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे
मतले ने ही जान ले ली ....
सिहर जाती हैं शाखों पे फुनगियाँ
लोग बेवजह पत्थर चला रहे होंगे
हर शजर का यही नसीब है ......
आईने ने आज सच कह दिया है
वे यकीनन तिलमिला रहे होंगे.
ये शेर तो जबरदस्त है भाई.....
बहुत सुंदर गज़ल है.
मतला तो सबसे उम्दा लगा...
परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे
..वाह.
मज़ा आ गया ग़ज़ल पढ़ कर , आखिरी शेर किसी और ने भी ब्लॉग पर डाला हुआ है , आखिरी पंक्ति तो पक्का यही है ..नींव को कुछ लोग हिला रहे होंगे ।
बहुत सुंदर जी, हम ति इन जानवरो ओर पक्षियो से भी गये गुजरे बन गये है... अपने ही बनाये धर्म पर खुन खराबा किये जाते है
आपकी लिखी कविता सूरज का महज़ एक तपन जो मुझे बहुत पसंद है अपने ब्लाग में एक पोस्ट के साथ साथियों का हौसला बढ़ाने के लिए ली है...धन्यवाद
मन्दिर से मस्ज़िद तक
या मस्ज़िद से मन्दिर तक
कोई रास्ता नहीं है....
और क्या कहे ....बेहतरीन
ओह.....लाजवाब !!!
और क्या कहूँ....
जिनमें हमें बताया गया है-
मन्दिर में हिन्दू पूजा करते हैं,
मस्ज़िद में मुसलमाँ सजदा करते हैं
जिनमें यह नहीं बताया गया है
ईद, होली भारत का प्रमुख त्यौहार है
वरन जो बतलाता है
ईद मुसलमानों का त्यौहार है
और
होली, दीवाली हिन्दुओं का है पर्व.
इतनी देर कैसे हुई आप तक आने में..यह तो अपर्णा जी का आभार कि उन्होंने फेस बुक पर लिंक दिया ..आपकी कई पोस्ट पढ़ गया..लाजवाब.बिलकुल वैसा ही लगा कोई अपना मिल गया..अब आता रहूँगा.
हमज़बान यानी समय के सच का साझीदार
पर ज़रूर पढ़ें:
काशी दिखाई दे कभी काबा दिखाई दे
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_16.html
शहरोज़
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