कबूतर!
तुम कब सुधरोगे ?
आख़िर तुम क्यों कभी
मन्दिर के अहाते में उतरते हो
तो कभी
मस्ज़िद के आले में ठहरते हो?
क्या तुम्हें पता नहीं है
इनका आपस में
कोई वास्ता नहीं है,
मन्दिर से मस्ज़िद तक
या मस्ज़िद से मन्दिर तक
कोई रास्ता नहीं है.
.
अरे! अगर तुममें
इतनी भी अक्ल नहीं है,
तो क़्यों नहीं तुम हमसे सीखते हो?
क्यों नहीं तुम भी रट लेते हो
हमारी बौद्धिक पुस्तकों की भाषा,
जिनमें हमें बताया गया है-
मन्दिर में हिन्दू पूजा करते हैं,
मस्ज़िद में मुसलमाँ सजदा करते हैं
जिनमें यह नहीं बताया गया है
ईद, होली भारत का प्रमुख त्यौहार है
वरन जो बतलाता है
ईद मुसलमानों का त्यौहार है
और
होली, दीवाली हिन्दुओं का है पर्व.
.
अरे! हमसे सीखो
हम अपना धर्म बचाने के लिए
क्या नहीं करते हैं,
कभी बारूद बनकर मारते हैं
तो कभी बारूद से मरते हैं।
एक तुम हो-
जिसे आनी चाहिए शरम
तुम्हें अब तक ये सलीका नहीं आया
कि पहचान सको अपना धरम.
तुम कहाँ थे जब
मन्दिर हथौड़ा लिए खड़ा था,
मस्ज़िद ख़ंजर लिये
हर राह में अड़ा था?
तुम तो सबक लो
हमारी उन्नत सभ्यता से
हम बेशक खुद को नहीं जानते हैं,
पर अपना-अपना धरम
बखूबी पहचानते हैं.
.
अरे तुम तो
उस दिन से डरो
जब तुम मरोगे!
उस दिन भी क्या तुम
यही करोगे?
कबूतर तुम कब सुधरोगे?
61 comments:
कुछ तो हैं जो न सुधरने की ठाने बैठे हैं
वाह क्या बात है
कबूतर के माध्यम से बहुत बड़ा सन्देश दिया है आपने
कबूतर न ही सुधरे तो ठीक..काश!! हम इन्सान उस कबूतर से कुछ सीख लें.
बहुत गंभीर रचना. शानदार.
सन्देश देती हुई रचना नाम कबूतर का और इशारा हमारी तरफ बहुत खूब बधाई
कबूतर को तो बिगड़े ही रहने दो, सर। ये भी इन्सान की तरह सुधर गये तो कयामत हो ही जायेगी।
खूबसूरत सन्देश दर्शाती बढ़िया कविता...बधाई
प्रेरक और विचारणीय रचना ।
कबूतर को इंगित करके तो
कमाल का स्रजन किया है आपने!
वर्मा जी ..प्रस्तुत कविता को एक बार और पढ़ चुका हूँ संयुक्त भाव इतने बेहतरीन है कि चाहे जीतने बार पढ़े आनंदित करता है...एक संदेश देती हुई रचना...बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई
kbutr to kbutr he jnaab yeh hr vqt hr sdi men koi naa ko pegaa deta he lekin kbutr pr is sdi men itne behtrin flsfe mnvigyaan ke saath itni behtrin prstuti koi likh paayegaa mumkin nhin thaa jise mumkin kr aapne is sdi kaa kbutr risrch pr aek aatihaasik staavej rch kr doktret ki upaadhi yaani phd praapt kr li he bdhaayi ho . akhtar khan akela kota rajsthan
कबूतर, तुम न सुधरो,
सब के संग, तुम न मरो,
यहाँ जानों का बाजार लगा है,
उड़ो यहाँ से, मन की करो।
बहुत ही बेहतरीन सन्देश! लेकिन क्या करें...... लोग आते हैं, पढ़ते हैं, वाह-वाह करते हैं और बस..... काश कुछ समझ भी पाते!
धर्म के नाम पर जो खून खराबा होता रहा है उस पर एक व्यंग के माध्यम से सन्देश ...और संदेशवाहक का बिम्ब भी कबूतर को लेना जो शांति का प्रतीक है ....बहुत सुन्दर रचना है ...बस यह मात्र एक रचना समझ कर न पढ़ी जाये ...कुछ इससे गुना भी जाये ...
कबूतर बिगड़ा ही रहे ...तो अच्छा
सुधरे हुए इंसानों का जो हाल देखा है ...!
जरुरी सन्देश ...कोई समझे तो ...आभार ...!
लाजवाब रचना ....
बहुत सुन्दर लिखा है आपने ! उम्दा प्रस्तुती!
मित्रता दिवस की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ!
कबूतर!
तुम कब सुधरोगे ?
आख़िर तुम क्यों कभी
मन्दिर के अहाते में उतरते हो
खूबसूरत सन्देश.....
shukra hai kam se kam ye to insaan hone ke dayre se bahar hai..inke liye na koi sarhad hai na majhab hai..prerak panktiyaan!
बढ़िया रचना , वर्मा साहब !
मंगलवार 3 अगस्त को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ .... आभार
http://charchamanch.blogspot.com/
Kya gazab kee sashakt rachana hai! Kaash! Ye samajh aam aadmee ko aa jaye!
यह कबूतर तो न ही सुधरे
हम सुधर जायें इनसे सीख लेकर
बहुत सुन्दर संदेश देती एक बेहतरीन रचना।
मगर ये कबूतर ना सुधरने की कसम खाये बैठे हैं इन्हे तो इसी तरह करारे व्यग्य बाणो से ही जगाया जायेगा।
lajwab rachna lagi, badhai
काश हम सब बिगड़ जाएँ!
अज़ान सुन कर मंदिर की घंटी बजाएं!
साथ में मनाएं होली-दिवाली!
और ईद पर सभी गले-मिल जाएँ!
बाऊ जी,
खरी बात कही है आपने!
सादर आदाब!
ये लोकतंत्र के कबूतर हैं । इन्हें बिगड़े रहने का हक़ है ।
बढ़िया व्यंगात्मक रचना वर्मा जी ।
kabutar ke madhyam se aapne insaano ko bahut badi baat samjha di. aabhar.
कबूतर को माध्यम बना जिस प्रकार आपने व्यंग रचना का सृजन किया तारीफ के लिए शब्द कम हैं. संगीता जी ठीक कहती हैं की हम इसे सिर्फ रचना समझ कर ना पढ़े बल्कि गुने भी.
आभार इस रचना के लिए.
बहुत विचारणीय रचना, शुभकामनाए.
रामराम
खूबसूरत सन्देश प्रेरक और विचारणीय बहुत ही बेहतरीन सन्देश.
bahut achchhi kavita.
बड़े जिद्दी कपोत हैं.. कपोत हैं कि कपूत हैं.. सुधरते ही नहीं इंसानों से कुछ सीख के शैतान बनते ही नहीं..
कहीं पे निगाहें कहिं पे नेशाना ...
डांट रहे हैं कबतर को और दोनो भाई सकपका गए.
इसी को कहते हैं दमदार व्यंग्य. इस कविता को पहले भी पढ़ा है, हर बार मजा आया.
ये कबूतर शायद हम इंसानों से लाख गुना अच्छे हैं जो ये कभी नहीं सुधरते... काश, इन मामलों में हम इंसान भी इतने ढीठ बन पाते...
अरे भई, जब हम नहीं सुझरे, तो कबूतर कैसे सुधर सकता है?
वैसे आपका सवाल बड़ा मासूम है, बधाई देने को जी चाहता है।
…………..
अद्भुत रहस्य: स्टोनहेंज।
चेल्सी की शादी में गिरिजेश भाई के न पहुँच पाने का दु:ख..।
bahoot acchi
kabutar to jarur sudhar jayenge
par hum
ये कबूतर भी ना ... सुधर ही नहीं सकते ... लगता है इनको धर्म और जाति का महत्व समझाना पड़ेगा ...
बेहतरीन रचना !
बहुत बढ़िया संदेश देती हुई रचना
अगर यही हम समझ जाएं तो दुनिया ख़ूबसूरत हो जाए
बधाई ऐसी सोच के लिए
आदरणीय वर्मा साहब,
एक मुद्दत के बाद लौटा हूँ पूरी तरह से ब्लॉगजगत में कमबख्त पेट और मज़अबूरियों को कुछ और नाम तो नही दिया जा सकता।
कबूतर के बहाने इंसानों को एक बहुत ही अच्छी नसीहत दी हैं जो शायद पक्षियों को समझ आयेगी लेकिन इंसान फिर वही हवा को बाँट देने की कोशिश करेगा। और कबूतर कभी नही सुधर पायेगा।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
... bhaavpoorn rachanaa !!!
दुश्यन्त जी का एक शेर है " एक कबूतर चिठ्ठी लेकर पहली बार उड़ा /मौसम एक गुलेल लिये था पट से नीचे आन गिरा "
यहां मौसम की जगह धर्म कर दें तब भी चलेगा ।
बहुत ही सुन्दर सन्देश देते हुए गंभीरता के साथ विचारणीय रचना लिखा है आपने ! उम्दा प्रस्तुती!
कबूतर के बहाने गहरी बात कह दी । जो कबूतर समज गये वह हम नादान इन्सान ना समझे । कबूतर ना ही सुधरे बल्कि हम ही सुधर जायें ..........
वाह क्या बात है.विचारणीय रचना।
very nice post with nice msg..
pls visit my news blog..
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बहुत ही सार्थक सन्देश देती एक बेहतरीन रचना ! काश धर्म के कथित ठेकेदार भी इसे पढ़ें और कुछ सीख ग्रहण कर लें ! शायद तभी सच्चे अर्थ में अपने धर्म की सही शिक्षा का मर्म समझ पायें ! काश ! इतनी संवेदनशील रचना के लिये बहुत बहुत बधाई वर्माजी !
यही तो कबूतर की विशेषता है, कभी मंदिर तो कभी मस्जिद में...
_____________
'पाखी की दुनिया' में आपका स्वागत है.
bahut khub likha he
http://bejubankalam.blogspot.com/
बहुत ही गहरे भाव लिये हुये, प्रेरक प्रस्तुति, बधाई ।
सार्थक व्यंग्य....
करारी चोट की है आपने...
बहुत बहुत सुन्दर...
मन में बस गयी आपकी यह अद्वितीय रचना...
हमारी उन्नत सभ्यता से
हम बेशक खुद को नहीं जानते हैं,
पर अपना-अपना धरम
बखूबी पहचानते हैं.
...samajik vyastya ke dumuhenpan ko kabootar ke madhya se aapne bakhubi udheda hai..
..Saarthak sandesh deti rachna ke liye dhanyavaad
इतनी प्यारी रचना और समय पर नहीं पढ़ सका भाई जी खेद है !! बेहतरीन सामयिक अभिव्यक्ति है ! ऐसी रचनाओं की बहुत जरूरत है जिससे हमारी आत्मा हिल जाए शायद कुछ तो बदलाव आएगा हमारे सोचने में ! यह बेहतरीन रचनाओं में से एक है जो मैंने अब तक पढ़ीं होंगी !
शुभकामनायें !
vaah....jabardast....bahut khoob....
waah.. sunder ehsaas hai par kafi khurduri suchchai bhi hai.
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें
कमाल की रचना!
कबूतर के माध्यम से दिया गया यह सन्देश लोगों को कुछ सीख दे सके यही दुआ है
कबूतर तुम कब सुधरोगे ..
कितना सटीक व्यंग है इंसान पर जो आज कबूतर से भी गया गुज़रा है ... काश इन पंचियों से कुछ सकें हम ... बहुत गंभीर रचना ....
अपनी रचना वटवृक्ष के लिए भेजिए - परिचय और तस्वीर के साथ
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yah rachna
कबूतर को सुधारने के बहाने, इंसानों को अच्छी शिक्षा दी है आपने..........बहुत बढ़िया !
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