Monday, July 26, 2010

ताश के महल सा कांपता है मकाँ ~~

परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे

गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे

.

सिहर जाती हैं शाखों पे फुनगियाँ

लोग बेवजह पत्थर चला रहे होंगे

.

यूँ ही नहीं गिरते शाख़ों से हरे पत्ते

इनकी जड़ों को कीड़े खा रहे होंगे

.

ख़ौफजदा हैं पत्थर भी इस पहाड़ के

संगतराशों को इर्द-गिर्द पा रहे होंगे

.

आईने ने आज सच कह दिया है

वे यकीनन तिलमिला रहे होंगे.

.

उनके जिस्म की तपिश बढ़ गई है

सूरज से वे नज़रें मिला रहे होंगे.

.

ताश के महल सा कांपता है मकाँ

नींव को कुछ लोग हिला रहे होंगे

52 comments:

Udan Tashtari said...

भाई जी


मतला ही अपने आप में पूरी बात है:

परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे


अहा!! आनन्द आ गया...बेहतरीन!
.

अजय कुमार said...

शानदार रचना ।समाज का काला रूप ।

honesty project democracy said...

परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे

गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे

परिंदे तो बेचारे सारे मारे गये या डरकर मरने की कगार पर हैं ..

इस देश व समाज में अब तो सिर्फ गिद्ध ही गिद्ध नजर आ रहें है ,लेकिन मनुष्यों के रूप में ...

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

@ ख़ौफजदा हैं पत्थर भी इस पहाड़ के
संगतराशों को इर्द-गिर्द पा रहे होंगे

ये पंक्तियाँ बहुत पसन्द आईं। भाव और अर्थों की गहराई अद्भुत है।

राजभाषा हिंदी said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

वाणी गीत said...

परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे...

बहुत गहराई है आपके इस शेर में ..
दादी कहा करती थी 84 लाख योनियों के बाद ईश्वर मनुष्य जन्म देता है ...आजकल जानवर कम हो गए हैं ...वे इंसानों के रूप में जन्म लेने लगे हों शायद ...!

डॉ टी एस दराल said...

परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे

शानदार रचना । पूरी ग़ज़ल ही बढ़िया है ।

प्रवीण पाण्डेय said...

आपका अन्दाज़ ए बयाँ बड़ा सुलझा हुआ लगता है। हमेशा की तरह बेहतरीन गज़ल।

Razia said...

परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे
शानदार गज़ल

विनोद कुमार पांडेय said...

यूँ ही नहीं गिरते शाख़ों से हरे पत्ते

इनकी जड़ों को कीड़े खा रहे होंगे

वर्मा जी बहुत दिनों के बाद आपको पढ़ रहा हूँ..वाकई बेहतरीन..सुंदर भाव से सजी एक सटीक रचना....आभार वर्मा जी

Shah Nawaz said...

बहुत ही ज़बरदस्त ग़ज़ल, बहुत खूब!

Shah Nawaz said...
This comment has been removed by the author.
Mahfooz Ali said...

सुंदर व आकर्षित करता शीर्षक .... और बहुत ही सुंदर ग़ज़ल....

रश्मि प्रभा... said...

यूँ ही नहीं गिरते शाख़ों से हरे पत्ते

इनकी जड़ों को कीड़े खा रहे होंगे

... shaandaar

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

ताश के महल सा कांपता है मकाँ

नींव को कुछ लोग हिला रहे होंगे

बहुत खूबसूरत गज़ल...बहुत सी विसंगतियों को कह दिया आपने ...

kshama said...

Har sher apne aapme mukammal hai!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

इस बार के ( २७-०७-२०१० मंगलवार) साप्ताहिक चर्चा मंच पर आप विशेष रूप से आमंत्रित हैं ....आपकी उपस्थिति नयी उर्जा प्रदान करती है .....मुझे आपका इंतज़ार रहेगा....शुक्रिया

आपकी चर्चा कल के चर्चा मंच पर है

shikha varshney said...

यूँ ही नहीं गिरते शाख़ों से हरे पत्ते

इनकी जड़ों को कीड़े खा रहे हों
waah
बहुत गहरे भाव समेटे है रचना .

सदा said...

परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे

बहुत ही बेहतरीन पंक्तियां, ।

Parul kanani said...

उनके जिस्म की तपिश बढ़ गई है

सूरज से वे नज़रें मिला रहे होंगे.

har pankti .."waah' ki haqdaar hai :)

sonal said...

har pankti kamal

vandana gupta said...

परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे .
सिहर जाती हैं शाखों पे फुनगियाँ
लोग बेवजह पत्थर चला रहे होंगे

आज के हालात का सजीव चित्रण कर दिया।
हर शेर एक नयी कहानी बयाँ कर रहा है।
किस किस शेर की तारीफ़ करूँ ।
समाज का कडवा सच दिखा दिया।

The Straight path said...

शानदार रचना

दिगम्बर नासवा said...

ख़ौफजदा हैं पत्थर भी इस पहाड़ के
संगतराशों को इर्द-गिर्द पा रहे होंगे

वर्मा जी ... कौन से एक शेर का चुनाव करूँ ... सब के सब आज के क्रूर सत्य को बयान कर रहे हैं ... क्या ग़ज़ब के शेर हैं ... बेहद यथार्थ में डूब कर लिखे हुवे ...

M VERMA said...

Renu Sharma has left a new comment on your post "ताश के महल सा कांपता है मकाँ ~~ ":

varma ji namaskar

tash ke mahal sa
kanpata hai makan
neenv ko kuchh log
hila rahe honge

bahut hi khoob likha hai

मनोज कुमार said...

आप की इस ग़ज़ल में विचार, अभिव्यक्ति शैली-शिल्प और संप्रेषण के अनेक नूतन क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं।

36solutions said...

बेहतरीन रचना, धन्‍यवाद.

shama said...

Pata nahi aapko aise alfaaz kahan se soojh jate hain...ham to padhke dang rah jate hain.

sandhyagupta said...

सिहर जाती हैं शाखों पे फुनगियाँ
लोग बेवजह पत्थर चला रहे होंगे

ख़ौफजदा हैं पत्थर भी इस पहाड़ के
संगतराशों को इर्द-गिर्द पा रहे होंगे

वाह.यूँ ही लिखते रहिये.

रवि कुमार, रावतभाटा said...

एक-एक शेर लाजवाब...

बेहतरीन ग़ज़ल....

रचना दीक्षित said...

ख़ौफजदा हैं पत्थर भी इस पहाड़ के
संगतराशों को इर्द-गिर्द पा रहे होंगे

सागर सी गहरी बात मन में भी हलचल पैदा कर गयी

ज्योति सिंह said...

आईने ने आज सच कह दिया है

वे यकीनन तिलमिला रहे होंगे.
क्या खूब कही है जम गयी

Jyoti said...

ताश के महल सा कांपता है मकाँ
नींव को कुछ लोग हिला रहे होंगे
बहुत अच्छी रचना!!!
हमेशा की तरह बेहतरीन .........

Urmi said...

वाह! क्या बात है! बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ उम्दा रचना लिखा है आपने!

अनामिका की सदायें ...... said...

हर शेर में बहुत गहराई है.

सुंदर रचना.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सिहर जाती हैं शाखों पे फुनगियाँ

लोग बेवजह पत्थर चला रहे होंगे

इस गज़ल का हर शेर कुछ न कुछ अलग बयान कर रहा है...अलग अलग परिस्थितियों को ले कर बुनी अच्छी गज़ल..

अंजना said...

बेहतरीन रचना ।

दीपक 'मशाल' said...

माफी चाहता हूँ कि बहुत देर से पढ़ने आ पाया इस बहुत ही शानदार ग़ज़ल को पढ़ने को...

Asha Joglekar said...

यूँ ही नहीं गिरते शाख़ों से हरे पत्ते

इनकी जड़ों को कीड़े खा रहे होंगे


जोरदार, जबरदस्त प्रहार ।

Saumya said...

bauhat acchi

Sadhana Vaid said...

वर्माजी बहुत दिनों के बाद इतनी बेहतरीन गज़ल पढने को मिली ! हर शेर की जितनी तारीफ़ की जाए कम है ! देर से पढ़ पाई इसका अफ़सोस है ! बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं !

Satish Saxena said...
This comment has been removed by the author.
Satish Saxena said...

"आईने ने आज सच कह दिया है
वे यकीनन तिलमिला रहे होंगे !"
आनंद आ गया वर्मा जी ! इस प्यारी रचना के लिए शुभकामनायें

vijay kumar sappatti said...

varma ji ,

bahut khoob , kya baat hai , wah gazal ko aaj padhkar dil jhoom utha hai , badhayi

Pawan Kumar said...

हुज़ूर मोहतरम.....

बेहतरीन शेरोन से सजी इस ग़ज़ल को पढने के बाद बहुत देर तक सोचता रहा...किस तरह ग़ज़ल को अंजाम तक पहुँचाया है

परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे

गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे

मतले ने ही जान ले ली ....

सिहर जाती हैं शाखों पे फुनगियाँ

लोग बेवजह पत्थर चला रहे होंगे

हर शजर का यही नसीब है ......

आईने ने आज सच कह दिया है

वे यकीनन तिलमिला रहे होंगे.

ये शेर तो जबरदस्त है भाई.....

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बहुत सुंदर गज़ल है.
मतला तो सबसे उम्दा लगा...

परिन्दे यूँ ही नहीं घबरा रहे होंगे
गिद्धों के क़ाफ़िले नज़र आ रहे होंगे
..वाह.

शारदा अरोरा said...

मज़ा आ गया ग़ज़ल पढ़ कर , आखिरी शेर किसी और ने भी ब्लॉग पर डाला हुआ है , आखिरी पंक्ति तो पक्का यही है ..नींव को कुछ लोग हिला रहे होंगे ।

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर जी, हम ति इन जानवरो ओर पक्षियो से भी गये गुजरे बन गये है... अपने ही बनाये धर्म पर खुन खराबा किये जाते है

ajay saxena said...

आपकी लिखी कविता सूरज का महज़ एक तपन जो मुझे बहुत पसंद है अपने ब्लाग में एक पोस्ट के साथ साथियों का हौसला बढ़ाने के लिए ली है...धन्यवाद

Coral said...

मन्दिर से मस्ज़िद तक
या मस्ज़िद से मन्दिर तक
कोई रास्ता नहीं है....

और क्या कहे ....बेहतरीन

रंजना said...

ओह.....लाजवाब !!!
और क्या कहूँ....

शेरघाटी said...

जिनमें हमें बताया गया है-
मन्दिर में हिन्दू पूजा करते हैं,
मस्ज़िद में मुसलमाँ सजदा करते हैं
जिनमें यह नहीं बताया गया है
ईद, होली भारत का प्रमुख त्यौहार है
वरन जो बतलाता है
ईद मुसलमानों का त्यौहार है
और
होली, दीवाली हिन्दुओं का है पर्व.


इतनी देर कैसे हुई आप तक आने में..यह तो अपर्णा जी का आभार कि उन्होंने फेस बुक पर लिंक दिया ..आपकी कई पोस्ट पढ़ गया..लाजवाब.बिलकुल वैसा ही लगा कोई अपना मिल गया..अब आता रहूँगा.

हमज़बान यानी समय के सच का साझीदार
पर ज़रूर पढ़ें:
काशी दिखाई दे कभी काबा दिखाई दे
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_16.html

शहरोज़