Tuesday, April 27, 2010

कंटकाकीर्ण पथों से गुजरते हुए ~~

हर शाम

कंटकाकीर्ण पथों से गुजरते हुए

लहुलुहान हो जाते हैं

अरमानों के पाँव.

हर शाम

संसार के निर्मम थपेड़ों से

टूटे हुए हौसलें ही

होते हैं मेरे साथ.

और फिर विमूढ़ आक्रोश

उपजने लगता है

खुद ही के खिलाफ़.

परंतु व्यथित-थकित मैं

तकता हूँ तुम्हारी आँखों में

खुद में निहित

निर्जीव अभिलाषाएँ

ढह जाती हैं भरभराकर

न जाने कैसे

टूटे हुए हौसले

फिर से अपने पैरों पर

खड़े हो जाते हैं

और आहिस्ता से

मेरा हाथ पकड़ मुझे ले आते हैं

सूरज की प्रथम किरण के साथ ही

उन्हीं पथों पर

जहाँ से गुजरकर मैं

पहुच सकता हूँ

अरमानों के सुखद मंजिल तक --

सन 1984 मे रचित रचना, जिसका प्रसारण आकाशवाणी वाराणसी से हो चुका है.

36 comments:

दिलीप said...

bahut khoob sir...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत सुन्दर भावनात्मक कविता है ... थके हारे पथिक को नई उमंग, नया हौसला मिल जाये ...
तुम्हारी आँखों की नूर में खुदा मिल जाये ...

मनोज कुमार said...

बिना निराश हुए ही हार को सह लेना पृथ्वी पर हौसले की सबसे बडी परीक्षा है ।

रश्मि प्रभा... said...

armaanon ki manzil mili ho jise , shabd uski pitari se kabhi nahi khote......her raaston se gujarte hue use mukaam milte hain

Razia said...

हौसला बढाती रचना
सुन्दरता से कही गयी

kshama said...

उन्हीं पथों पर

जहाँ से गुजरकर मैं

पहुच सकता हूँ

अरमानों के सुखद मंजिल तक --
Yah panktiyan bahut hausla detee hain!

Prem Farukhabadi said...

maargdarshak kavita .Badhai!!

रोहित said...

'haan,tabhi to jevan chalta hai,
hauslo ke sahare hi to manushya gantavya tak pahunchta hai!'
bahut khub sir!
aadar
#ROHIT

रोहित said...

'haan,tabhi to jevan chalta hai,
hauslo ke sahare hi to manushya gantavya tak pahunchta hai!'
bahut khub sir!
aadar
#ROHIT

रोहित said...

'haan,tabhi to jevan chalta hai,
hauslo ke sahare hi to manushya gantavya tak pahunchta hai!'
bahut khub sir!
aadar
#ROHIT

कडुवासच said...

....बेहतरीन !!!

अजय कुमार said...

हिम्मत दिलाती रचना

dipayan said...

लाज़वाब । अति सुन्दर । उम्मीद भरी रचना ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत भावात्मक और साथ ही सकारात्मक रचना...बहुत अच्छी लगी..

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर ओर भाव भरी रचना. धन्यवाद

दीपक 'मशाल' said...

Sir maaf karna par aaj thoda niraash hua main.. aap ki qalam wali baat nahin mili is kavita me..

M VERMA said...

@दीपक 'मशाल'
मत भूलें कि यह रचना सन 1984 में लिखी गई है.
धन्यवाद

Jyoti said...

बेहतरीन हिम्मत दिलाती रचना.............

sumit said...

badi acchi hai
kaha se aate hai aise vichar

प्रवीण पाण्डेय said...

अपने पर प्रश्न उठाने वालों में ही दूसरों के फ3श्नों का उत्तर देने की क्षमता होती है ।

रचना दीक्षित said...

हर शाम कंटकाकीर्ण पथों से गुजरते हुए लहुलुहान हो जाते हैं अरमानों के पाँव.
सूरज के प्रथम किरण के साथ ही उन्हीं पथों पर जहाँ से गुजरकर मैं पहुच सकता हूँ अरमानों के सुखद मंजिल तक

वाह !!!!!!!!! क्या बात है.....
अच्छे हैं मन के ये उदगार

Vinay said...

ह्रदयस्पर्शी रचना है

vandana gupta said...

bahut hi bhaavpoorna aur saamyik rachna.

Parul kanani said...

sundar abhivykti!

Anonymous said...

बिना यह भूले कि...
यह १९८४ की रचना है...

उस समय जब भारत का एक हिस्सा सुलग रहा था...
शायद यही वाज़िब था...
कि हौसला ना खोया जाए...

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

ढह जाती हैं भरभराकर

न जाने कैसे

टूटे हुए हौसले

फिर से अपने पैरों पर

खड़े हो जाते हैं

और आहिस्ता से

मेरा हाथ पकड़ मुझे ले आते हैं

वर्मा जी, मैंने सुबह करीब ६ बजे आपकी इस रचना पर टिपण्णी की थी और तब शायद वो इस पोस्ट की भी पहली टिपण्णी रही होगी मगर गायब है ?

M VERMA said...

गोदियाल सर
सादर
आपका स्नेह मिला कृतार्थ हुआ. आपने बताया कि आपने सुबह टिप्पणी की थी --- उफ यह क्या हो रहा है पहले भी मेरी कुछ टिप्पणियाँ गायब हो चुकी हैं. अभी एक पोस्ट पढ़ रहा था उसमें बताया गया कि पोस्ट अपने आप ब्लाग पर प्रकाशित हो गई. लगता है कुछ गड़बड़ है.
खेद है आपका बेशकीमती टिप्पणी प्राप्त नहीं कर पाया. कोई बात नहीं स्नेह बनाये रखें.
धन्यवाद

M Verma

संजय भास्‍कर said...

बहुत भावात्मक रचना...बहुत अच्छी लगी..

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

मन के भावों की सार्थक अभिव्यक्ति।
हार्दिक्‍ बधाई।
--------
गुफा में रहते हैं आज भी इंसान।
ए0एम0यू0 तक पहुंची ब्लॉगिंग की धमक।

कविता रावत said...

निर्जीव अभिलाषाएँ
ढह जाती हैं भरभराकर
न जाने कैसे
टूटे हुए हौसले
फिर से अपने पैरों पर
खड़े हो जाते हैं
...हौसलों अगर पस्त हों तो फिर एक कदम भी चलना दुर्भर हो जाता है ......
सुन्दर भावपूर्ण मर्मस्पर्शी रचना के लिए आभार ..

निर्मला कपिला said...

कई दिन बाद दुआ सलाम करने आयी हूँ शुभकामनायें रचना तो हमेशा की तरह लाजवाब है।

शरद कोकास said...

सूरज के किरण नही सूरज की किरण ..।

Urmi said...

बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना! दिल को छू गयी हर एक पंक्तियाँ! लाजवाब!

राज भाटिय़ा said...

क्या बात है जी बहुत सुंदर भाव.
धन्यवाद

दिगम्बर नासवा said...

उर्जा का संचार करती लाजवाब रचना है ... निराशा से आशा तक का खुद ही संचार होता है ...

निर्झर'नीर said...

बहुत दिन बाद आपके ब्लॉग आँगन में आना हुआ ....कई कवितायेँ पढी मन मोहक असरदार समाज को आइना दिखाती हुई ...

लेकिन इस रचना ने खास प्रभावित किया

इनकी शिकस्त तो हो ही नहीं सकती हार की आहट से ये बदल लेंगे पाले