बहुरूपिये खयाल हैं
फेंकते जाल हैं
.
ज़मीर बेच दिया
अब ये मालामाल हैं
.
रोटियाँ उदास हैं
रूठ गये दाल हैं
.
फुसफुसा रहे दरख़्त
गहरी कोई चाल है
.
डूब गये खेत-घर
सूख गये ताल हैं
.
बेअसर हर बात से
बहुत मोटी खाल है
.
इंसान की फितरत
अनसुलझा सवाल है
~~
52 comments:
ज़मीर बेच दिया
अब ये मालामाल हैं
वर्मा जी बहुत ही सुंदर कविता ओर सच से भरपुर.
धन्यवाद
ज़मीर बेच दिया
अब ये मालामाल हैं .
वाह वर्मा जी, सही व्यंग कसा है।
सामयिक रचना।
दीवाना आदमी को बनाती है रोटियां
अब चांद पर भी नज़र आती है रोटियां
ज़मीर बेच दिया अब ये मालामाल हैं . रोटियाँ उदास हैं रूठ गये दाल हैं .
वाह! बहुत सुंदर और सामयिक रचना....
इंसान की फितरत अनसुलझा सवाल है
sirf ek shabd-----------umda.
सूरज ज़रा, आ पास आ
आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम
ए आसमां तू बड़ा मेहरबां
आज तुझको भी दावत खिलाएंगे हम
सूरज ज़रा, आ पास आ
चूल्हा है ठंडा पड़ा
और पेट में आग़ है
गर्मागर्म रोटियां
कितना हसीं ख्वाब है
सूरज ज़रा, आ पास आ
आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम...
जय हिंद...
shukria'
dil ko sparsh kar gayin ......rotiyan aur sparsh.
आपने बहुत ही सुन्दरता से सच्चाई को बयान करते हुए उम्दा रचना लिखा है! बहुत अच्छी लगी आपकी ये शानदार रचना !
वर्मा जी ,
बड़ा साधा हुआ व्यंग है..मजा आ गया...पूरी की पूरी कविता दिल को भा गयी है...साधू !
बहुत करारा प्रहार है जी!
जिन्दगी का गीत रोटी मे छिपा है।
साज और संगीत, रोटी में छिपा है।।
रोटियों के लिए ही, मजबूर हैं सब,
रोटियों के लिए ही, मजदूर हैं सब।
कीमती सोना व चाँदी, तब तलक,
रोटियाँ संसार में हैं, जब तलक।
खेत और खलिहान सुन्दर, तब तलक,
रोटियाँ उनमें छिपी हों, जब तलक।
झूठ, मक्कारी, फरेबी, रोटियों के रास्ते हैं,
एकता और भाईचारे, रोटियों के वास्ते हैं।
हम सभी यह जानते है, रोटियाँ इस देश में हैं,
रोटियाँ हर वेश में है, रोटियाँ परिवेश में है।
रोटियों को छीनने को , उग्रवेशी छा गये हैं,
रोटियों को बीनने को ही, विदेशी आ गये हैं।
याद मन्दिर की सताती, रोटियाँ जब पेट में हों,
याद मस्जिद बहुत आती, रोटियाँ जग पेट में हों।
राम ही रोटी बना और रोटिया ही राम हैं,
पेट की ये रोटियाँ ही, बोलती श्री-राम हैं।
रोटियों से, थाल सजते, आरती के,
रोटियों से, भाल-उज्जवल भारती के।
रोटियों से बस्तियाँ, आबाद हैं,
रोटियाँ खाकर, सभी आजाद हैं।
प्यार और मनमीत, रोटी में छिपा है।
जिन्दगी का गीत, रोटी मे छिपा है।।
बहुत बेहतरीन और सटीक...
शास्त्री जी ने चार चांद लगा दिये.
रचना जीवन की अभिव्यक्ति है।
जमीर बेच कर मालामाल हुए इंसान की फितरत को तो अनसुलझा सवाल होना ही है ....!!
बहुत बढ़िया , वर्मा साहब , एक-एक शब्द गहरे दर्द को समेटे हुए है !
अच्छा प्रहार
रोटियों की उदासी और दाल का रूठना......
ज़िन्दगी के अनसुलझे ख्याल ही हैं.......वाह !
waah !!
bahut sadha hua vyangye...zameer bik jane ke baad kuchh bhi mehetevpoorn kaise reh sakta hai.
Jameer bech dia ,ab ye malamal hain..
bahut sateek .
क्या सशक्त प्रतीक हैं और क्या गहरे भाव! मान गये!
बहुत सुन्दर भाव लगे इस के बेहतरीन रचना शुक्रिया
रोटियाँ उदास हैं
रूठ गए दाल हैं
फूस फुसा रहे दरख्त
गहरी कोई चल है ...
ये मयंक जी जो सारी रोटियाँ पका गए ....कहीं ये उदासी इस वजह से तो नहीं .....?
"zindagee ke ansulajhe khayalat..." zindagee ko kaun samajha..jo zameer bechte hain...malamal bante hain,wo to kabhi nahi..! Behtareen rachna hai!
http://shamasansmaran.blogspot.com
http://kavitasbyshama.blogspot.com
http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com
सब कुछ सवाल है,
पर कविता बेमिशाल है,
खूबसूरत संदेश है,
शब्द भी कमाल है,
बहुत बहुत धन्यवाद
रोटियों को लेकर अलग अलग बिम्बों मे अनेक कविताये रची गई है लेकिन निर्जीव रोटी के भीतर सम्वेदना महसूस करते हुए उसे यह उदासी का बिम्ब देना बहुत अच्छा लगा ।
इंसान की फितरत
अनसुलझा सवाल है
बहुत खूबसूरत शब्दों में व्यंगय किया गया है. आभार
हर शब्द दिल को छूता हुआ, सत्यता के बेहद निकट यह अभिव्यक्ति बहुत ही बेहतरीन, आभार ।
रोटियाँ उदास हैं
रूठ गये दाल हैं
फुसफुसा रहे दरख़्त
गहरी कोई चाल है ....
आपने तो छोटी बहर को भी बाखूबी निभाया है वर्मा जी .... और कमाल के शेर कहे हैं ...... रोजमर्रा के जीवन की सत्य घटनाओं से निकली हुई रचना है ...... बेमिसाल ..........
वर्मा जी, बहुत खूब.
सत्य!
वाह वाह!!
(शास्त्री जी की रोटी महिमा लुभा गयी)
-Sulabh Jaiswal
बहुत ही अच्छी पंक्तियाँ हैं , धन्यवाद !
हाँ हमारी तरह गालियाँ ये कहाँ से पाएंगे
आप चाहें तो उन्हे कुछ सिखला सकते हैं
एक बात की तारीफ तो करनी ही पड़ेगी कि
इतनी गालियाँ देने के बाद भी वे लोग आपस में
लड़ते नहीं हैं।
छोटी बहर की अच्छी ग़ज़ल
जीवन की स्थितियों पर तीखा व्यंग्य किया है आपने।
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सांसद/विधायक की बात की तनख्वाह लेते हैं?
अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद कैसे सफल होगा ?
बेअसर हर बात से बहुत मोटी खाल है . इंसान की फितरत अनसुलझा सवाल है ~~वाह!वाह!वाह!
बहुत ही सुन्दर कविता...पर सच यही है...
बेअसर हर बात से
बहुत मोटी खाल है
बहुत खूब लिखा है !
कहीं कहीं कुछ अखर रहा है जैसे "रूठ गये दाल हैं" ... दाल मेरी समझ के अनुसार स्त्रीलिंग है !
रचना शानदार है!
डूब गये खेत-घर
सूख गये ताल हैं .
ज़मीर बेच दिया
अब ये मालामाल हैं .
itne km shabdoN meiN
itni gehree aur sachchee baateiN
keh daali haiN...
waah !!
बहुरूपिये खयाल हैं
फेंकते जाल हैं
डूब गये खेत-घर
सूख गये ताल हैं
बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ हैं, श्रीमन.. धन्यवाद
आपको अपने ब्लॉग पर भी जोड़ रहा हूँ
- पीयूष
रोटियाँ उदास हैं
रूठ गये दाल हैं .
फुसफुसा रहे दरख़्त
गहरी कोई चाल है
बहुत सुन्दर पंक्तियां----खूबसूरत शब्दों में लिखी गयी।
हेमन्त कुमार
Atisundar saarthak prabhaavshalee abhivyakti.....
Mugdh kar liya aapki is rachna ne....Waah !!!
बहुत खूब प्रशंसनीय.
जो बचा हुआ कुछ अनाज है
बनानी उसकी अब शराब है
ठेका उनको मिल गया है
सब उनके ही रिश्तेदार हैं
दाने दाने पर लिखा है
पीने वाले का जो नाम है
ज़मीर बेच दिया
अब ये मालामाल हैं
बहुत ही अच्छी रचना, सच्चाई को लफ्ज़ लफ्ज़ बयां करती हुई...बधाई...
नीरज
इंसान की फितरत
अनसुलझा सवाल है
बहुत खूबसूरत शब्दों में व्यंगय किया गया है. आभार
बहुत बढिया व्यंग । और ये तो बहुत ही......बढिया
ज़मीर बेच दिया
अब ये मालामाल हैं ।
bhut hi behtreen yek vyangatmak rachna aaj ke samaaj par aur uske ansuljhe pahlu par meri badhaayi swikaar kare
saadar
praveen pathik
9971969084
बहुत सटीक रचना सर आभार
ek sach bayan karti ,manko chu lete hain yeh bhav ,shubhkamnayen
क्या अंदाज़ है साहब! बहुत खूब!लिखते रहिये, कहते रहिये
क्म शब्दो मे गहरी बात।
बहुत ही अच्छी रचना
बहुत-२ आभार
बहुत ख़ूबसूरत रचना अभिव्यक्ति . बधाई
बहुत ख़ूबसूरत रचना अभिव्यक्ति . बधाई
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