बुधवार, 17 दिसंबर 2025

जिस्म की फसल

 

उसके बच्चे भूखे थे।
और सत्ता
रोज़ नए नारे बो रही थी।


वह किसान
बीज बोता गया
मिट्टी, पानी, मौसम
सबसे संधि करता गया

पर घोषणा-पत्र तो उगे
फसल नहीं उगे।


उसके बच्चे भूखे थे
उसने अपना हाथ बो दिया
पसीने का टैक्स भरा
मेहनत को मतदान बनाया
पर फसल नहीं उगे।

क्योंकि यहाँ वोट की गिनती होती है
भूख की नहीं!


वह पैर बोता गया
नौकरियाँ! शहर! आवाज़!
पर फसल नहीं उगने थे
नहीं उगे!

क्योंकि रोज़गार की रिपोर्ट में
किसान का नाम नहीं आता!

अब वह अपने जिस्म का हर हिस्सा
लोकतंत्र के नाम पर बो रहा था!
आवाज़ बोई— 

तो देशद्रोह लगा।
माँग बोई— 

तो एंटी-नेशनल हो गया!

उसने धरती में
खुद को गाड़ दिया।
हड्डियाँ बो दीं
लहू बो दिया
अस्तित्व बो दिया।

और उसी वक़्त
फसल लहलहाने लगी
बाज़ार खिल उठा
सत्ताएँ मुस्कुराईं
शेयर-भाव चढ़ गए
राष्ट्रवाद का पोस्टर चमक गया!


लेकिन बच्चों की थाली
आज भी थे खाली

फिर भी
मंचों पर भाषण गूंजे:
किसान हमारी रीढ़ है!

वह ज़िंदा थाइसलिए सवाल पूछता था,
मर गयातो आकड़ा बन गया!

वह भूखा थाइसलिए बोझ था,
मर गयातो सौदा हो गया!


उसकी मौत पर भीड़ का मुनाफ़ा है।
और अगर तुम्हें ग़ुस्सा नहीं आया
तो समझ लो,
तुम भीकिसी की फसल हो!

सच तो यह है कि
समाज की फसल
ज़िंदगी बोकर ही उगती है!

12 टिप्‍पणियां:

Razia Kazmi ने कहा…

बेहतरीन रचना - समसामयिक

M VERMA ने कहा…

Thanks 😊

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह

M VERMA ने कहा…

जी धन्यवाद

Aman Peace ने कहा…

Wah!

M VERMA ने कहा…

Thanks 😊 🫂

Sweta sinha ने कहा…

गहन विश्लेषण, मर्मस्पर्शी सार्थक रचना सर।
सादर।
--------
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ दिसंबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

M VERMA ने कहा…

Ji thanks 😊

Meena Bhardwaj ने कहा…

गहन सृजन ।

M VERMA ने कहा…

Thanks 😊

Abhilasha ने कहा…

मर्मस्पर्शी, सार्थक, सारगर्भित, समसामयिक यथार्थ को प्रस्तुत करती रचना

M VERMA ने कहा…

धन्यवाद