Sunday, March 24, 2019

सांस जब टूट गयी..... गज़ल

धूप में देखिये पसीना सुखाने आया है
खंजरों को वह जख्म दिखाने आया है

नींद में चलते हुए यहाँ तक पहुंचा है
लोगों को लगा कि राह बताने आया है

गफलत की जिंदगी के मर्म को जाना
फितरत को जब वह आजमाने आया है

राह में जिसके पलके बिछाते रहे हम
आज वो हमको आँखे दिखाने आया है

सांस टूट गयी, बिखर गया जब वजूद
देखिये आज वो रिश्ता निभाने आया है 

Saturday, March 16, 2019

धुप्प अँधेरे में


धुप्प अँधेरे में
खुद को तलाशने की कोशिश में
स्वयं के एहसासों के अवशेषों से
कई बार टकराया
निःशब्द स्व-श्वासों की आहट से
कई बार चकराया

दिग्भ्रमित करने के लिए
तैनात हो गए  
मेरे ही खंडित सपने
आक्रोशित से खड़े मिले
तथाकथित मेरे अज़ीज़, मेरे अपने
सबने मेरी गुमशुदगी का इल्जाम
मुझ पर ही लगाया

मकड़ी के उलझे जालों के बीच से;
अवगुंठित अनगिन सवालों के बीच से,
खुद का हाथ पकड़कर
खुद के करीब लाया  
खुद को फिर भी प्रतिपल
खुद से और दूर पाया

Tuesday, May 8, 2018

वर्णों की यायावरी



वर्णों की यायावरी से
‘शब्द’ परेशान हैं
‘व्याकरण’ खीझता सा खड़ा है
‘भाव’ व्यथित-हैरान है
कल दिखा ‘ख’ वर्ण
खंजर लिए हुए
‘म’ वर्ण मिला दहशत का
मंजर लिए हुई
फटेहाल दिखा ‘अनुच्छेद’
मलीन ‘पैराग्राफ’ के चेहरे पर
अब भी जख्मों के
अनगिनत निशान हैं,
वर्णों की यायावरी से
‘शब्द’ परेशान हैं
पत्रिकाओं की पीढियां
आत्महत्या कर रहीं हैं,
मकड़ी के जालों के बीच दुबकी
किताबें डर रहीं हैं,
असंदर्भित हो गये हैं
अनगिनत सन्दर्भ ग्रन्थ,
‘रिसाले’ शायद अब  
कुछ ही दिनों के मेहमान हैं
वर्णों की यायावरी से
‘शब्द’ परेशान हैं.

Sunday, November 6, 2016

खुशबू

जिंदगी की तलाश में
वह बैठा रहता है
शहंशाही अंदाज़ लिए 
कूड़े के ढेर पर,
नाक पर रूमाल रखे
आते-जाते लोगो को
निर्विकार भाव से
देखते हुए गुनगुनाता है
‘कुण्डी मत खड़काना राजा’
सिर्फ आज की नहीं
यह तो है
रोज की कहानी
कालोनी से आने वाला
कूड़े से लदा ट्रक
जब खाली होकर चला जाएगा
वह सड़ते हुए
रोटियों की ‘खुशबू’ से सराबोर हो
एक और दिन के लिए
जिंदगी पायेगा

कितना फर्क हैं ना
हमारी खुशबू और 
उसकी खुशबू में 

Saturday, October 22, 2016

एक चिड़िया मरी पड़ी थी










बलखाती थी
वह हर सुबह 
धूप से बतियाती थी
फिर कुमुदिनी-सी 
खिल जाती थी
गुनगुनाती थी 
वह षोडसी
अपनी उम्र से बेखबर थी
वह तो अनुनादित स्वर थी 
सहेलियों संग प्रगाढ़ मेल था 
लुका-छिपी उसका प्रिय खेल था
खेल-खेल में एक दिन
छुपी थी इसी खंडहर में
वह घंटों तक 
वापस नहीं आई थी
हर ओर उदासी छाई थी
मसली हुई 
अधखिली वह कली
घंटों बाद 
शान से खड़े 
एक बुर्ज के पास मिली
अपनी उघड़ी हुई देह से भी
वह तो बेखबर थी
अब कहाँ वह भला
अनुनादित स्वर थी 
रंग बिखेरने को आतुर
अब वह मेहन्दी नहीं थी 
अब वह कल-कल करती
पहाड़ी नदी नहीं थी
टूटी हुई चूड़ियाँ 
सारी दास्तान कह रही थीं
ढहते हुए उस खंडहर-सा 
वह खुद ढह रही थी
चश्मदीदों ने बताया
जहाँ वह खड़ी थी 
कुछ ही दूरी पर 
एक चिड़िया मरी पड़ी थी

Wednesday, October 19, 2016

कोखजने का दम तोड़ना ---













मैंने देखा है
अपने जवान पश्नों को
उन बज्र सरीखे दीवारों से टकराकर
सर फोड़ते हुए
जिसके पीछे अवयस्क बालाएँ
अट्टहासों की चहलकदमी के बीच 
यंत्रवत वयस्क बना दी जाती है
और
बेशरम छतें भरभराकर ढहती भी नहीं हैं

मैनें देखा है
आक्सीजन की आपूर्ति बन्द कर देने के कारण
अपने नवजात, नाजुक और अबोध
प्रश्नों को दम तोड़ते हुए
अक्सर मैं इनके शवों को
कुँवारी की कोख से जन्मे शिशु-सा
कंटीली झाड़ियों के बीच से उठाता हूँ

बहुत त्रासद है
कोखजने को दम तोड़ते हुए देखना
और फिर खुद ही दफनाना
हिचकियाँ भी तो प्रश्नों का रूपांतरण ही हैं
तभी तो मैं इन्हें जन्म ही नहीं लेने देता
और आँसुओं की हर सम्भावना का
गला घोट देता हूँ

जी हाँ! यही सच है
अब मैं अपने तमाम प्रश्नों का गला
मानस कोख में ही घोट देता हूँ
मेरा अगला कदम
उस कोख को ही निकाल फेंकना है
जहाँ से इनका जन्म सम्भावित है

Thursday, July 5, 2012

दाल में सब काला है ….



यही तो गड़बड़झाला है 
दाल में सब काला है 

ओहदे पर तो होगा ही   
वो जब उसका साला है 

कैसे कहें जो कहना है 
मुंह पर लगा ताला है 

शायद किस्मत साथ दे 
सिक्का  फिर  उछाला है 

शब्दों के बगावती तेवर 
परेशानी में वर्णमाला है 

किरदार समझने लगे हैं 
दुनिया एक रंगशाला है 

जख्मों ने मेरे जिस्म को 
समझ लिया धर्मशाला है

Friday, June 29, 2012

चिठिया लिख के पठावा हो अम्मा .. (भोजपुरी)


चिठिया लिख के पठावा हो अम्मा
गऊंआ क तूं हाल बतावा हो अम्मा
हमरे मन में त बा बहुते सवाल
पहिले त तू बतावा आपन हाल
घुटना क दरद अब कईसन हौ 
अबकी तोहरा बदे ले आईब शाल
मन क बतिया त सुनावा हो अम्मा
गऊंआ क तूं हाल बतावा हो अम्मा
टुबेलवा क पानी आयल की नाही
धनवा क बेहन रोपायल की नाही
झुराय गयल होई अबकी त पोखरी
परोरा* क खेतवा निरायल की नाही
अपने नजरिया से दिखावा हो अम्मा
गऊंआ क तूं हाल बतावा हो अम्मा
छोटकी बछियवा बियायल त होई
पटीदारी में इन्नर* बटायल त होई
चरे जात होई इ त वरूणा* किनारे
मरचा से नज़र उतरायल त होई
मीठ बोल बचन से लुभावा हो अम्मा
गऊंआ क तूं हाल बतावा हो अम्मा
बाबूजी से कह दा जल्दी हम आईब
ओनके हम अबकी दिल्ली ले आईब
खटेलन खेतवा में बरधा के जईसन
अबकी इहाँ हम इंडिया गेट घुमाईब
कटहर क तू अचार बनावा हो अम्मा
गऊंआ क तूं हाल बतावा हो अम्मा
 

परोरा = परवल
इन्नर = गाय के प्रथम दूध को जलाकर बनाया गया पदार्थ
वरूणा = हमारे गाँव से गुजरने वाली नदी
चित्र : साधिकार बिना आभार देवेन्द्र पाण्डेय (बेचैन आत्मा)

Friday, June 22, 2012

जिस्म पर कीलें गाड़ देता है ….


मेरा रहबर हर कदम पर मुझको पहाड़ देता है
सूरज के कहर से बचाने के लिए ताड़ देता है
.
आशियाना बनाने में वह इस कदर मशगूल है
न जाने कितनों का वह छप्पर उजाड़ देता है
.
हालात बयाँ करने के लिए जब भी खत लिखा
पता देखकर बिना पढ़े बेरहमी से फाड़ देता है
.
नयन नीर से सिंचित ज़ज्बाती इन पौधे को
देखा उसने जब भी जड़ से ही उखाड़ देता है
.
कई बार मैं मरा हूँ उसके लफ़्ज़ों के नश्तर से
बेरहम कातिलों को भी वह तो पछाड़ देता है
.
वारदात चहलकदमी करते हैं उसी के इशारे पर
मासूमियत से मगर हर बार पल्लू झाड़ देता है
.
दीवार कीमती है कहीं पलस्तर न उखड़ जाए
इस डर से वह मेरे जिस्म पर कीलें गाड़ देता है

Sunday, June 3, 2012

तुम पहाड़ पर चढ़ो ….



तुम पहाड़ पर चढ़ो
हम तुम्हारी सफलता के लिए
दुआएं करेंगे;
तुम जमीन खोदकर
पाताल में उतर जाओ,
जब तक तुम
बाहर नहीं आ जाते
हम तुम्हारे लिए
फिक्रमंद रहेंगे.
हम लड़ रहे हैं;
लड़ते रहेंगे तुम्हारे लिए.
तुम चिलचिलाती धूप में
रेतीली जमीन पार कर
उस पार जब पहुंचोगे,
हवाई मार्ग से पहुंचकर
हम तुम्हे वहीं मिलेंगे,
भरे मंच पर
तुम्हारा सम्मान करेंगे;
तुम्हारे अथक श्रम की
भूरि-भूरि सराहना और
तुम्हारी जीजिविषा का
गुणगान करेंगे.
तुम निश्चिन्त रहो,
हमने तो
तुम्हारे जीवन के एवज में
मुआवजे भी तजबीज रखें हैं,
हमारे लिए तुम्हारा जीवन
बेशकीमती है,
तुम बेख़ौफ़ होकर
पहाड़ पर चढ़ो
हम तुम्हारी सफलता के लिए
दुआएं करेंगे

Wednesday, May 23, 2012

छत्तीस का आकड़ा है ….

छत्तीस का आकड़ा है
क़दमों में पर पड़ा है
.
आंसुओं को छुपा लेगा
जी का बहुत कड़ा है
.
उंगलियां उठें तो कैसे?
कद उनका बहुत बड़ा है
.
लहुलुहान तो होगा ही 
पत्थरों से वह लड़ा है
.
कब का मर चुका है
वह जो सामने खड़ा है
.
खाद बना पाया खुद को 
महीनों तक जब सड़ा है
.
कल सर उठाएगा बीज
आज धरती में जो गड़ा है

Thursday, May 17, 2012

उसका मरना कोई खबर नहीं है ….



आज वह
एक बार फिर मरा है
पर यह कोई खबर नहीं है
वैसे भी,
उसके मरने की खबर
किसी खबरनवीस के लिए
खबर की बू नहीं देती,
क्योंकि
खबर तभी खबर बन पाती है
जब उसमें
पंचातारे की नजाकत हो;
या फिर
बिकने की ताकत हो.
.
यूं तो यह विषय है
अनुसन्धान का
कि वह पहली बार कब मरा ?
स्वयं यह प्रश्न
खुद के अस्तित्व के लिए
निरंतर अवसादित है;
अन्य सार्थक प्रश्नों की तरह
यह प्रश्न
आज भी विवादित है,
और फिर
प्रश्न यदि बीज बन जाएँ
तो कुछ और प्रश्न पनपते हैं
यथा ..
क्या वह कभी ज़िंदा भी था ?
और अगर हाँ
तो किन मूल्यों पर ?
.

क्यूंकि वह
आये दिन मरा है
इसीलिये तो उसका मरना
कोई खबर नहीं है

Tuesday, May 8, 2012

इस नगर में और कोई परेशानी नहीं है ….


खाना नहीं, बिजली और पानी नहीं है
इस नगर में और कोई परेशानी नहीं है
.
चूहों ने कुतर डाले हैं कान आदमी के
शायद इस शहर में चूहेदानी नहीं है 
.
चहलकदमी भी है, सरगोशियाँ भी हैं
मंज़र मगर फिर भी तूफानी नहीं है
.
आये दिन लुट जाती है अस्मत यहाँ
कौन कहता है यह राजधानी नहीं है
.
अपनों पर बेशक तुम यकीं मत करो
बेईमानों के बीच मगर बेईमानी नहीं है
.
बादलों को तो गगन चूमने नहीं दिया
कहते फिरे माँ का आँचल धानी नहीं है
.
हिस्से तुम्हारे इसलिए ‘किस्से’ नहीं हैं
क्योंकि संग तुम्हारे, तुम्हारी नानी नहीं है

Wednesday, May 2, 2012

कांटे से ही कांटे को निकाला मैंने ….


जिस्म को बेइंतिहाँ उछाला मैंने
बिखरकर खुद को संभाला मैंने
.

बेदर्द का दिया दर्द सह नहीं पाया
पत्थर का एक ‘वजूद’ ढाला मैंने
.

किरदार छुपा लेते हैं एहसासों को
खुद को बना डाला रंगशाला मैंने
.

एहसास उनके रूबरू ही नही होते
न जाने कितनी बार खंगाला मैंने
.

अब क्या दिखेंगे जख्म के निशान
ओढ़ लिया है जबकि दुशाला मैंने
.

जब हो गया मजबूर हर नुस्खे से
कांटे से ही कांटे को निकाला मैंने
.

ताकि ये किसी और को न डसें
आस्तीनों में साँपों को पाला मैंने

Thursday, April 26, 2012

‘कृपा' के व्यापारी ……..


शातिर ये शिकारी हैं
‘कृपा’ के व्यापारी हैं
.
बीमारी दूर करेंगे क्या
खुद ये तो बीमारी हैं
.
इनके सफ़ेद वस्त्रों में
जेब नहीं आलमारी हैं
.
रिश्तों को किश्तों में
बेचने वाले पंसारी हैं
.
घुटनों के बल रेंग रहे
फिर भी क्रांतिकारी हैं
.
जोड़कर माया-स्विश
बनते ये अवतारी हैं
.
धन-साधन युक्त मगर
मत समझो संसारी हैं