एक–दो–तीन
अपनी रोटी छीन
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बाजुएँ उठा
क्यूँ है तूँ दीन
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बिखर गये हैं
फिर से उनको बीन
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नज़रें तूँ खोल
मत हो इतना लीन
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खिसकने न दे
पैरों तले की जमीन
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सच्चाई देख
तुम भी हो ज़हीन
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सुलझाओ उलझन
मन ना कर मलीन
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नागों के दंश
उठा लो अपनी बीन
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एक–दो–तीन
अपनी रोटी छीन
46 comments:
यूँ तो मिलने से रहा हक...अब छीनना ही होगा.
बढ़िया रचना.
बहुत बढ़िया ... छोटी छोटी पंक्तियों से बड़ी बड़ी बातें !
वाकई में हक तो अब छीनना ही पड़ेगा.... दो लाइना में बहुत सुंदर कविता....
बिखर गये हैं
फिर से उनको बीन
बहुत अच्छे,
लाजवाब! बेहतरीन!!
शब्दों की कंजूसी पर भावों की दरियादिली
shandar naujavano ki aaj ki sthti ko dekhte hue likhi gyiiiii rachna
नागों के दंश
उठा लो अपनी बीन ..
Hameshaki tarah gazab dhaya hai!
बढिया है... हम मांगे मिलता नहीं छीन सके तो छीन....
नए अंदाज़ में बढ़िया प्रस्तुति।
हक़ तो ऐसे ही मिलता है।
छोटी बंदिश में एक बड़ी रचना...
बेहतरीन...
bada badhiya tuktak sirji...
वो दिन दुर नही....
.... बेहतरीन व प्रसंशनीय रचना !!!
बहुत बढ़िया रचना...सन्देश देती हुई...छोटी छोटी पंक्तियों में गज़ब की प्रस्तुति है
aaj ka sach he ye
bahtrin
bahut badhai
shekhar kumawat
इसे कहते हैं रचना।
रोटियों की संख्या बढ़ भी सकती है। एक-दो तीन चार, अपनी रोटी गिन यार।
श्रेष्ठ सीपिकाएँ!
सच्चाई देख
तुम भी हो ज़हीन
बेहतरीन व प्रसंशनीय रचना ...............
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sundar sandesh.
एक बेहतरीन रचना
काबिले तारीफ़ शव्द संयोजन
बेहतरीन अनूठी कल्पना भावाव्यक्ति
सुन्दर भावाव्यक्ति .साधुवाद
satguru-satykikhoj.blogspot.com
बहुत बढ़िया लगा! उम्दा प्रस्तुती!
यही ज्योति जलाते चलो भाई जी ! शुभकामनायें
हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ, सच तो यही है .यही है आज के जीवन का यथार्थ
एक दो तीन ...अपनी रोटी छीन ...
एक गीत की पंक्तियाँ याद आ रही है ...
जिंदगी भीख में नहीं मिलती ...
अपना हक संगदिल ज़माने से छीन पो तो कोई बात बने ...!!
बहुत ही लाजवाब ... छोटे छोटे बँध में बाँध कर लंबी बात कह दी है वर्मा जी ....
achha prayog hai ..teesre couplette me.. :been " jaise anchalik shabd ka prayog achha laga
ek do teen ,mehnat majduri kar apni
roti kama
एक–दो–तीन
अपनी रोटी छीन
...लाजवाब! बेहतरीन!!
'एक–दो–तीन
अपनी रोटी छीन '
- बिन मांगे मां भी अपनी संतान को दूध नहीं पिलाती.
बहुत सुंदर कविता ! हमारे देश से भूखमरी कब जाएगी !कमाल की भाषा है गोली की तरह छूटने के बाद सीधे मर्म पर लगती है ! आभार !
sara chakkar roti kaa hi hai ....hame bhi usaki bhookh hai
http://athaah.blogspot.com/
रजिया जी के शब्दों को दोहराऊॅगा-
शब्दों की कंजूसी पर भावों की दरियादिली
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...अंतर्मन के भाव !!
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'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर हम प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती रचनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं. आपकी रचनाओं का भी हमें इंतजार है. hindi.literature@yahoo.com
Lajawaab kar diya
एक–दो–तीन
अपनी रोटी छीन
बाजुएँ उठा
क्यूँ है तूँ दीन
..घुटकर, शोषित पीड़ित बनकर जीना भी क्या जीना ..
अपने अन्दर की शक्ति को पहचान कर अपनी दीनता त्याग कर मुशिबतों का डटकर सामना करने की प्रभावशाली प्रस्तुति .......
हार्दिक शुभकामनाएँ
वाह कमाल कविता.... बधाई.
इतनी कम पंक्तियों में इतनी गहरी बात...बहुत खूब
जागो.....
स्पष्ट सन्देश!
साधुवाद!
kam shabdon men kafi kuchh kah dia aapne.
badhiya rachna.
pahli baar aap ke blog par aaya hun par maja pura paya hun. badiya.
अच्छी अलख जगाई आपने इस कविता के माध्यम से।
बढ़िया रचना...
Ek iltija hai..Apne blog,"Simte Lamhen" pe maine ek dil dahlane wali aap beeti post kee hai..matru diwas ke awsarpe...aap gar padhen to khushi hogi..
nirashaa ko todti hui rachna .sundar
कम लफ्जों में बहुत गहरी बात का दी है आपने ..बेहतरीन रचना
बहुत ही सरल ढंग से जीवन के सत्य को उद्घाटित कर दिया आपने। बधाई।
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