लोगों को 'मेट्रो स्टेशन'
छोड़कर आती है।
"अबे ओ-देखकर चल!" -
यह उसका जुमला है।
उसे गालियों से भी
परहेज नहीं है,
असल में गालियाँ
उसकी ढाल हैं, कवच हैं,
जिनसे वह
हर दिन टकराते
उस रूखे संसार को
थोड़ा-सा दूर रखती है।
वह इसके माध्यम से
अपने नकारे गये अस्तित्व की
कहानी सड़क पर लिखती है.
धूल-धक्कड़ में
अपने सपनों का नाम
धीरे-धीरे उकेरती है।
वह सड़क-संस्कृति को
आत्मसात कर चुकी है -
जानती है कि यहाँ
धीरे चलने वालों को
धक्का मिलता है,
और खामोश रहने वालों की
कोई सुनवाई नहीं होती।
वह जानती है -
डरकर नहीं -
लड़कर ही
अपना हक मिलता है।
उसके चेहरे पर
झिलमिलाता पसीना
उसकी जद्दोजहद का
सबसे खूबसूरत आभूषण है।
वह रोज साबित करती है -
कि एक औरत
सिर्फ गाड़ी ही नहीं चलाती -
अपने हिस्से की दुनिया भी
खुद चलाती है।

2 टिप्पणियां:
Wah- बहुत सुंदर
धन्यवाद 😃
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