उसके बच्चे भूखे थे।
और सत्ता…
रोज़ नए नारे बो रही थी।
वह किसान—
बीज बोता गया—
मिट्टी, पानी, मौसम…
सबसे संधि करता गया—
पर घोषणा-पत्र तो उगे
फसल नहीं उगे।
उसके बच्चे भूखे थे—
उसने अपना हाथ बो दिया—
पसीने का टैक्स भरा—
मेहनत को मतदान बनाया—
पर फसल नहीं उगे।
क्योंकि यहाँ वोट की
गिनती होती है—
भूख की नहीं!
वह पैर बोता गया—
नौकरियाँ! शहर! आवाज़!
पर फसल नहीं उगने थे—
नहीं उगे!
क्योंकि रोज़गार की रिपोर्ट में—
किसान का नाम नहीं
आता!
अब वह अपने जिस्म का हर हिस्सा—
लोकतंत्र के नाम पर बो रहा था!
आवाज़ बोई—
तो देशद्रोह लगा।
माँग बोई—
तो एंटी-नेशनल हो गया!
उसने धरती में—
खुद को गाड़ दिया।
हड्डियाँ बो दीं—
लहू बो दिया—
अस्तित्व बो दिया।
और उसी वक़्त—
फसल लहलहाने लगी—
बाज़ार खिल उठा—
सत्ताएँ मुस्कुराईं—
शेयर-भाव चढ़ गए—
राष्ट्रवाद का पोस्टर चमक गया!
लेकिन बच्चों की थाली —
आज भी थे खाली
फिर भी—
मंचों पर भाषण गूंजे:
“किसान
हमारी रीढ़ है!”
वह ज़िंदा था—इसलिए सवाल पूछता था,
मर गया—तो आकड़ा बन गया!
वह भूखा था—इसलिए बोझ था,
मर गया—तो सौदा हो गया!
उसकी मौत पर भीड़ का मुनाफ़ा है।
और अगर तुम्हें ग़ुस्सा नहीं आया—
तो समझ लो,
तुम भी—किसी की फसल हो!
सच तो यह है कि
समाज की फसल—
ज़िंदगी बोकर ही उगती
है!
3 टिप्पणियां:
बेहतरीन रचना - समसामयिक
Thanks 😊
वाह
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