शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

"मैं इलाहाबाद नहीं होना चाहता" ....



मैं
अपने नाम को
सिरहाने,
तकिए के नीचे रखकर सोता हूँ,
क्योंकि मुझे पता है—
अब भी सक्रिय हैं
नाम चुराने वाले,
नाम बदलने वाले।

इलाहाबाद,
तुम तो मेरी बात से सहमत ही होगे—
गंगा मंथर बहती रही,
कभी असहमति जताई क्या
तुम्हारे नाम से?

उफ़! कितना कठिन है
इलाहाबादी अमरूद को
‘प्रयागराजी’ कहना,
क्योंकि अमरूद की मिठास से अधिक
‘इलाहाबादी’ का स्वाद
जुबान पर ठहरता है।

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी भी
कभी बगावत नहीं करती—
आज भी वैसे ही
पुराने नाम की छाँव में खड़ी है।

और तुम—
मुरादाबाद, गाज़ियाबाद
इतना मत इतराओ,
तुम्हारा हश्र भी
एक दिन यही होना है।
संस्कारित नाम मिलते ही
तुम्हारा पुराना नाम
किसी फाइल में
धीरे से दबा दिया जाएगा।

मैं इलाहाबाद नहीं होना चाहता,
मैं अपना नाम खोना नहीं चाहता।
इसीलिए हर रात
मैं अपने नाम को—
सिरहाने,
तकिए के नीचे रखकर सोता हूँ।