मैं अक्सर
कमरे का दरवाज़ा खोलने से डरता हूँ,
क्योंकि मुझे पता है
कमरे के अंदर बिना सुसाइड नोट के
पंखे से लटके मिलेंगे —
मेरे कुछ एहसास;
कोने
में कहीं दुबके मिलेंगे —
मेरे कुछ टूटे हुए विश्वास।
कुर्सी
पर बैठे मिलेंगे
कुछ अधूरे फ़ैसले,
जो अब भी तारीख़ पूछते हैं
कब पूरी हिम्मत जुटाकर
हम उन्हें अंजाम देंगे।
अलमारी
में तह लगाकर रखे मिलते हैं
बीते दिनों के ख़त,
जिनकी साँसें अब भी चलती हैं,
और जैसे ही छूता हूँ —
लफ़्ज़ फिर से ताज़ा हो जाते हैं।
और
मेज़ पर पड़ी डायरी में
कुछ पन्ने आधे लिखे रहते हैं,
मानो इंतज़ार हो किसी ऐसे कल का
जिस पर भरोसा करना
हमने बहुत पहले छोड़ दिया था।
इसलिए
मैं दरवाज़ा खोलने से डरता हूँ —
क्योंकि उस कमरे के कोने में
उल्टा लटका मकड़ा भी
मेरी बेबसी पर हँसेगा,
और मैं…
खुद को बचाने के लिए
फिर से मुस्कुराता मुखौटा पहन
लूँगा।

No comments:
Post a Comment