Wednesday, April 6, 2011

चुप्पी के बीच का कुहराम ~~



शहर की इन

ऊँची दीवारों के बीच

खुद का जिस्म उठाये

जब भी मैं आता हूँ

स्वयं को इन्हीं दीवारों का

हिस्सा पाता हूँ

.

धूप सहता हूँ;

पानी सहता हूँ

निस्पन्द; निश्चल रहता हूँ

पहचानने लगा हूँ

चीखों के बीच की चुप्पी

रात के सन्नाटे में पसरी

चुप्पी के बीच का कुहराम

.

जैसे ही पड़ती है

चाँदनी की पहली किरन

महसूस करता हूँ जिस्म पर

छिपकली रेंगने की सिहरन

जमीन से जुड़े होने का एहसास

मुझे हिलने भी नही देती है

देखते ही देखते मकड़ी भी

अपना जाल बुन लेती है

.

बाप के हवस की शिकार

सहमी-सहमी सी

मासूम नूर को;

मैनें देखा है मेरी ओट में

जलते ‘उस’ तन्दूर को

चश्मदीद हूँ मैं

कब्रगाह से उठकर

बाज़ार में आये मुर्दों का;

जिन्दगी तलाशते इंसाँ के

बिकते हुए गुर्दों का.

.

निर्दोषों; अबोधो के

लहू के धब्बे जब

मेरे जिस्म पर उग जाते हैं

न जाने कौन आकर

चन्द उपलब्धियों के इश्तहारों से

इन्हें ढक जाते हैं

.

मैं डरता हूँ खंडहर होने से

इसीलिये खामोश रहकर

बचा लेता हूँ अपना वजूद

खुद के जमीर के खिलाफ

न जाने कितनी बार मैं लड़ा हूँ

तभी तो,

तमाम इन गिरती दीवारों के बीच

आज तक मैं खड़ा हूँ

36 comments:

Kailash Sharma said...

मैं डरता हूँ खंडहर होने से

इसीलिये खामोश रहकर

बचा लेता हूँ अपना वजूद

खुद के जमीर के खिलाफ

न जाने कितनी बार मैं लड़ा हूँ

तभी तो,

तमाम इन गिरती दीवारों के बीच

आज तक मैं खड़ा हूँ..

आज के यथार्थ और अस्तित्ववाद का बहुत सटीक चित्रण...बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति..बहुत सुन्दर

shikha varshney said...

खुद के जमीर के खिलाफ

न जाने कितनी बार मैं लड़ा हूँ

तभी तो,

तमाम इन गिरती दीवारों के बीच

आज तक मैं खड़ा हूँ.
वर्तमान परिवेश में अस्तित्व को टिकाये रहने के जद्दोजहद की बेहतरीन अभिव्यक्ति.

महेन्‍द्र वर्मा said...

मैं डरता हूँ खंडहर होने से
इसीलिये खामोश रहकर
बचा लेता हूँ अपना वजूद
खुद के जमीर के खिलाफ
न जाने कितनी बार मैं लड़ा हूँ

वर्तमान समय में जीना अर्थात अंतर्द्वंद्व में जीना - यह सशक्त कविता व्यक्ति और समाज के खोखले हो चुके संबंध को उजागर करती है।

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

आजके समाज में मजबूरी के शाल लपेटे जीवन की सच्चाई को सामने लाने वाली इस बेहतरीन कविता के लिए आपको बधाई !

देवेन्द्र पाण्डेय said...

शहर की खूबसूरती का पोस्टपार्टम कर दिया आपने।
...बहुत खूब।

kshama said...

Gazab kee sashakt rachana hai...baar,baar padhee.

डॉ टी एस दराल said...

जीवन की डरावनी सच्चाइयों को उजागर करती रचना ।
बेहतरीन प्रस्तुति ।

'साहिल' said...

निर्दोषों; अबोधो के
लहू के धब्बे जब
मेरे जिस्म पर उग जाते हैं
न जाने कौन आकर
चन्द उपलब्धियों के इश्तहारों से
इन्हें ढक जाते हैं


'feel good'के नारे लगाने वाले नेता लोग ही होते हैं ये काम करने वाले, और मासूम जनता भी मान लेती है!
बहुत ही सशक्त कविता! हमारे देश का कडवा सत्य उजागर करती!

Sunil Kumar said...

मैं डरता हूँ खंडहर होने से
इसीलिये खामोश रहकर
बचा लेता हूँ अपना वजूद
खुद के जमीर के खिलाफ
न जाने कितनी बार मैं लड़ा हूँ
तभी तो,
तमाम इन गिरती दीवारों के बीच
आज तक मैं खड़ा हूँ
आज की सच्चाई को बयां करती हुई रचना ,खुबसूरत अहसासों की बहुत अच्छी अभिव्यक्ति , बधाई

Parul kanani said...

best one!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मैं डरता हूँ
खंडहर होने से
इसीलिये खामोश रहकर
बचा लेता हूँ

अपना वजूद खुद के जमीर के खिलाफ
न जाने कितनी बार मैं लड़ा हूँ

पूरी रचना विभत्स रस को दर्शा रही है ...शहर में क्या क्या हो रहा है एक कडुआ सच जो झकझोर कर रख रहा है ...बहुत मार्मिक और संवेदनशील प्रस्तुति

प्रवीण पाण्डेय said...

दीवारों ने जाने क्या क्या देखा है? बहुत सुन्दर कविता।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

चश्मदीद हूँ मैं

कब्रगाह से उठकर

बाज़ार में आये मुर्दों का;

जिन्दगी तलाशते इंसाँ के

बिकते हुए गुर्दों का.


बेहतरीन,खुबसूरत अभिव्यक्ति !

vandana gupta said...

चुप्पी के बीच के कोहराम को बेहद संजीदगी से प्रस्तुत किया है ……………ये किसी तूफ़ान से पहले की शांति जैसा दिख रहा है……………बेहद प्रशंसनीय रचना।

सदा said...

खुद के जमीर के खिलाफ

न जाने कितनी बार मैं लड़ा हूँ

तभी तो,

तमाम इन गिरती दीवारों के बीच

आज तक मैं खड़ा हूँ.

बहुत ही गहन भाव लिये ...बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

पूरी की पूरी रचना .....लाजवाब

नंगे यथार्थ का भावपूर्ण चित्रण ....अति सुन्दर

अरुण चन्द्र रॉय said...

यथार्थ और अस्तित्ववाद के जद्दोजहद का बहुत सटीक चित्रण..

दिगम्बर नासवा said...

जीवन के कठोर सच को ... दिल के आक्रोश को कलाम की दिशा दे दी है आपने ... बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है रचना ...

अनामिका की सदायें ...... said...

samaaj me faily itni kuritiyon aur kadvaahaton ke beech khud ko apne hi kohraam me chuppi saadh kar jeete rahna bahut durruh kaary hai.

prabhaavshali abhivyakti.

संजय भास्‍कर said...

वाह जी,
इस कविता का तो जवाब नहीं !
बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है रचना ...

संजय भास्‍कर said...

कई दिनों व्यस्त होने के कारण  ब्लॉग पर नहीं आ सका
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

Dr (Miss) Sharad Singh said...

खुद के जमीर के खिलाफ
न जाने कितनी बार मैं लड़ा हूँ
तभी तो,
तमाम इन गिरती दीवारों के बीच
आज तक मैं खड़ा हूँ .....

वर्तमान का यथार्थ है आपकी कविता में....
बहुत ही सुंदर कविता और बहुत ही गहरे भाव !
हार्दिक बधाई।

Amrita Tanmay said...

Bhayavah..vidrup ....aaj ke sach ko chuppi sahkar bari mahini se ujagar kiya hai. behtreen abhivyakti ke liye badhai sweekare. aapki shaili bahut achchhi lagti hai.aabhar

कविता रावत said...

मैं डरता हूँ खंडहर होने से
इसीलिये खामोश रहकर
बचा लेता हूँ अपना वजूद
खुद के जमीर के खिलाफ
न जाने कितनी बार मैं लड़ा हूँ
तभी तो,
तमाम इन गिरती दीवारों के बीच
आज तक मैं खड़ा हूँ
........बेहतरीन अभिव्यक्ति.

आकाश सिंह said...

आपके ब्लॉग पे आया, दिल को छु देनेवाली शब्दों का इस्तेमाल कियें हैं आप |
बहुत ही बढ़िया पोस्ट है
बहुत बहुत धन्यवाद|

यहाँ भी आयें|
यदि हमारा प्रयास आपको पसंद आये तो फालोवर अवश्य बने .साथ ही अपने सुझावों से हमें अवगत भी कराएँ . हमारा पता है ... www.akashsingh307.blogspot.com

वाणी गीत said...

मैं डरता हूँ खंडहर होने से
इसलिए खामोश रहकर बचा लेता हूँ अपना वजूद ..
यथार्थ और आदर्श स्थितियों का अंतर कसकता है कही भीतर और अंतर्मन की गहराईओं से निकल आती हैं ऐसी कवितायेँ!

रश्मि प्रभा... said...

मैं डरता हूँ खंडहर होने से

इसीलिये खामोश रहकर

बचा लेता हूँ अपना वजूद

खुद के जमीर के खिलाफ... mrit hoker bhi khokhle wajood ke liye khamosh rahta hun , aatma se pare chalta hun

ज्योति सिंह said...

मैं डरता हूँ खंडहर होने से

इसीलिये खामोश रहकर

बचा लेता हूँ अपना वजूद

खुद के जमीर के खिलाफ

न जाने कितनी बार मैं लड़ा हूँ

तभी तो,

तमाम इन गिरती दीवारों के बीच

आज तक मैं खड़ा हूँ..bahut sundar bha gayi .

Patali-The-Village said...

बहुत ही सुंदर कविता और बहुत ही गहरे भाव|

हरकीरत ' हीर' said...

जैसे ही पड़ती है
चाँदनी की पहली किरन
महसूस करता हूँ जिस्म पर
छिपकली रेंगने की सिहरन
जमीन से जुड़े होने का एहसास
मुझे हिलने भी नही देती है
देखते ही देखते मकड़ी भी
अपना जाल बुन लेती है

वर्मा जी इस रचना की जितनी भी तारीफ़ करूँ कम है ....
सच कहूँ मैं आपको याद ही कर रही थी ( देवेन्द्र जी को भी ) कि आज कल दिखाई नहीं दे रहे ...फिर सोचा शिक्षक हैं व्यस्त होंगें .....
बहुत ही लाजवाब लिखते हैं आप ...
काव्य शिल्प तो बेजोड़ होता है आपका ...
उपर्युक्त पंक्तियाँ तो बेहतरीन लगीं ...
बधाई .....!!

( ऊपर की पंक्ति में 'शहर के' की जगह 'शहर की' नहीं होना चाहिए ? देखिएगा !)

Akshitaa (Pakhi) said...

यह रचना तो मुझे भी अच्छी लगी...बधाई.

Vivek Jain said...

बहुत खूब!
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

Unknown said...

हकीकत कुछ और है, आँकड़े प्रायोजित हैं

नए सिरे से फिर तुम गुणा-भाग कर देखना

ब्लॉग बहुत शानदार है. बधाई वर्मा जी


दुनाली पर देखें
चलने की ख्वाहिश...

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 10/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

Saras said...

खुद के जमीर के खिलाफ

न जाने कितनी बार मैं लड़ा हूँ

तभी तो,

तमाम इन गिरती दीवारों के बीच

आज तक मैं खड़ा हूँ
...वाह ....बार बार टूटने ..और फिर संभल जाने के अहसास को जीती कविता ...बहुत सुन्दर !

निर्झर'नीर said...

खुद के जमीर के खिलाफ
जाने कितनी बार मैं लड़ा हूँ
तभी तो,
तमाम इन गिरती दीवारों के बीच
आज तक मैं खड़ा हूँ ..........verma ji aapka chintan or vichar andar tak hila jata hai
exceelent creation ....yakinan kabil-e-daad