अपना कोई चेहरा
नही होता है भीड़ का,
भीड़ में मगर
अनगिन चेहरे होते हैं.
भीड़ में
जब लोग बोलते हैं,
तब समवेत स्वर
संवाद से परे हो जाता है.
भीड़ गुनती नहीं है कुछ भी;
भीड़ सुनती नहीं है कुछ भी,
भीड़ में मगर
अनगिन कान होते हैं.
कदहीन भीड़ भी
अक्सर आदमकद होती है,
जवाबदेही से परे
भीड़ निरंकुश होती है.
सत्य नहीं देख पाती है भीड़
क्योंकि,
भीड़ में आँखे तो होती हैं अनेक
पर नहीं होती है
भीड़ की आँखे.
भीड़ का मंतव्य भी
तय नहीं होता है;
भीड़ का गंतव्य भी
तय नहीं होता है,
क्योंकि,
अनगिन पाँव होते हुए भी
अपने पैरों पर
कब चली है भीड़ !!
54 comments:
सही बात है ..
असल मुद्दा को ध्यान से बँटा देती है,
तादाद अक्सर स्तर को घटा देती है ....
अच्छी रचना, लिखते रहिये...
bahut badhiya rachana.....abhaar
कविता के माध्यम से समाज का सच उकेर दिया...बहुत खूबसूरत भाव...बधाई.
भीड का वास्तविक चित्रण!भीड का ’अकेलापन’ भी एक अहसास है जो बहुत सालता है!
भीड़ का गंतव्य भी तय नहीं होता है, क्योंकि, अनगिन पाँव होते हुए भी अपने पैरों पर कब चली है भीड़ !!
बिल्कुल सही कहा………………बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
अपना कोई चेहरा
नही होता है भीड़ का,
भीड़ में मगर
अनगिन चेहरे होते हैं.
भीड़ में
जब लोग बोलते हैं,
तब समवेत स्वर
संवाद से परे हो जाता है.
bahut hi badhiyaa
क्योंकि,
भीड़ में आँखे तो होती हैं अनेक
पर नहीं होती है
भीड़ की आँखे.
भीड़ का मंतव्य भी
तय नहीं होता है;
भीड़ का गंतव्य भी
तय नहीं होता है,
क्योंकि,
अनगिन पाँव होते हुए भी
अपने पैरों पर
कब चली है भीड़ !!
बहुत खूबसूरत भाव...बधाई!!!
अपने पाँव पर कब चली है भीड़ , बहुत सही कहा , बस भीड़ को दिशा देने वाला सही मार्गदर्शक हो ..
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
उत्तम रचना....बेहतरीन भावों से सजी लाजवाब पंक्तियाँ.... M VERMA JI
yahi to vidambna hai ...ek sacchi kavayad!
क्योंकि,
अनगिन पाँव होते हुए भी
अपने पैरों पर
कब चली है भीड़ !!
aapki baate bilkul uchit hai ,behtrin rachna .
भीड़ की मानसिकता का बहुत सुन्दर विश्लेषण और प्रस्तुति..आभार..
bahut hi sundar rachna
aabhar
बहुत ही सुन्दर शब्द, बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
भीड़ --यानि अनेकता में एकता और एकता में अनेकता । बहुत खूब ।
लेकिन भीड़ भाड़ में भाड़ का क्या अर्थ है ? कृपया यह भी बताएं ।
... बहुत सुन्दर ... प्रसंशनीय रचना, बधाई !
अनगिन पाँव होते हुए भी
अपने पैरों पर
कब चली है भीड़ !!
अपने सच कहा ... भीड़ वो खिलौना है जिसे कोई सियासी दिमाग चाबी लगता है ... बहुत अच्छी रचना ...
सच है भीड़ का न कोई चेहरा होता है और न ही अलग कोई स्वर ...बहुत अच्छी प्रस्तुति ..
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 12 -10 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
Behad sundar rachana!
Pichhalee 2 baar comment box nazar nahi aaya tha,isliye comment nahi kar payi thi!
भीड़ का गंतव्य भी
तय नहीं होता है,
क्योंकि,
अनगिन पाँव होते हुए भी
अपने पैरों पर
कब चली है भीड़ !!
--
सही आकलन करके आपने बहुत ही सटीक रचना को जन्म दिया है!
बहुत सुंदर रचना धन्यवाद
भीड़ का अपना अलग व्यक्तित्व होता है।
भीड़ का एक एक चित्र उकेर दिया आपने .बहुत सुन्दर रचना.
बिल्कुल सही कहा आपने...
बहुत उम्दा रचना.
भीड़ के मनोविज्ञान पर अच्छा प्रहार ...!
भीड़ के पास एक और चीज़ अनुपस्थित होती है वह है दिमाग।
सत्य ... बहुत ही यथार्थ लिखा है ... भीड़ लक्ष्यहीन हो जाती है तभी तो बहुत कुछ होते हुवे भी कुछ नही होती .....
बहुत खूब ...बहुत पसंद आई यह शुक्रिया
बहुत ही सार्थक रचना...लेकिन भीड़ को दिशा देने वाला भी कोई न कोई तो होता ही है क्योकि भीड़ और भेड़ की अपनी कोई चाल और दिशा होती ही नहीं है ....?
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना! उम्दा प्रस्तुती!
....
अनगिन पाँव होते हुए भी
अपने पैरों पर
कब चली है भीड़ !!
..बेहतरीन कविता की इन पंक्तियों ने मंत्रमुग्ध कर दिया।..वाह !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ! सच है की भीड़ में इन्सान अपनी सोचने की क्षमता खो देता है ...
बहुत अच्छी कविता...बधाई.
Sach hai! Bheed ka bartaav behad daravna hota hai! Aur uspe kisi kaa bas nahi chalta!
Bheed ka koee chehera nahee hota na hee koee gantawya. Bheed to bas ek jonoon hota hai kis bat ka ye use bhee pata nahee hota.
hamesha kee tarah utkrushta rachna. Abhar.
बहुत सही कहा ...
भीड़ तो अन्धी जो चाहे हाँक दे।
www.srijanshikhar.blogspot.com पर " क्योँ जिन्दा हो रावण "
बहुत सही कहा ...
भीड़ तो अन्धी जो चाहे हाँक दे।
www.srijanshikhar.blogspot.com पर " क्योँ जिन्दा हो रावण "
कदहीन भीड़ भी अक्सर आदमकद होती है.....अनगिन पाँव होते हुए भी अपने पैरों पर कब चली है भीड़....भीड़ का कितना सही निरूपण किया है आपने.
वाह.
bahut khoobsurti se likha hai .
बहुत सुन्दर कविता... भीड का बिम्ब लेकर अच्छी कविता.. सच कहा आप्ने.. कदहीन भीड का कद आदमकद होता है..
Sach Yahii hai bheed
"भीड़ गुनती नहीं है कुछ भी;
भीड़ सुनती नहीं है कुछ भी,"
भीड़ की मानसिकता और चरित्र की सुंदर और सटीक अभिव्यक्ति. आभार.
सादर
डोरोथी.
जय बोलो इस भीड़ की जिसका अपना कुछ नहीं फिर भी सारा जहां मुठी में.
सशक्त रचना.
भीड़ गुनती नहीं है कुछ भी;
भीड़ सुनती नहीं है
बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ........
भीड़ का इतना सुन्दर चित्रण किया है आपकी कविता ने ..और वाकई में भीड़ की सत्यता है की वो अंधी, बहरी, दिशाविहीन और पागल होती है ... अतः भीड़ के चपेटे में आना बहुत खतरनाक भी होता है.. जबकि भीड़ किसी बात पे आक्रोशित हो..
विजयदसमी पर बुराई के खात्मे का आह्वाहन करते हुवे में आपको शुभकामनाये और दश्हेरा की बधाई देती हूँ.. ..
हमारे शहर में बे चेहरा लोग रहते हैं
कभी कभी कोइ चेहरा दिखाई देता है.
आपकी कविता ने इस शेर की याद ताज़ा कर दी. अच्छी रचना.
बहुत सटीक और सार्थक ...
यकीन माने बहुत शिद्दत से महसूस किया है आपकी इस कविता को कई बार ..
ये और बात है कि उसे इस तरह शब्दों में ढालने का खन न आया
बहुत सुन्दर रचना !
भीड़ का चेहरा डरावना होता है ...
सच कहा, पार्थ को तो लडना ही होता है। क्योंकि यही नियति है।
aahvahn krti ek ojpoorn kvita jiska khule dil se swagat krna chahiye .
bhut bhut dhnywaad .
अनगिन पाँव होते हुए भी अपने पैरों पर कब चली है भीड़ !!
सच है। भीड़ तो भेड़ चाल चलती है।
उचित संबोधन।
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