मेरा - तेरा, इसका - उसका, तुमने ही तो छाटें हैं
बोया बबूल, बबूल ही होगा, क्यों कहते हो कांटे हैं
टुकडो में मिलेंगे रिश्ते, किश्तों में पहचान मिलेगी
चिंदी - चिंदी मिलेंगे लोग, ज़ख्म जो इतने बाटें हैं
क्यूँ अचम्भा हुआ देखकर, बोतल में ठहरे पानी को
पहुँच तुम्हारी आसमान तक, गहराई तुमने पाटे हैं
बाज़ार में टिकने के खातिर बाजारी होना होता है
सोये थे जब कुछ करना था, अब कहते हो घाटे हैं
बेचने आए लोगों का बिक जाना मैंने भी देखा है
इश्तहारी इस युग में देखो चप्पे-चप्पे पर हाटें हैं
आम है अस्मत लूटना स्वयम्भू सभ्य समाज में
हैवानियत के हाथों ये मानवता के मुँह पर चांटे है
पहचान बनाते नज़रों को नज़रंदाज़ किया तुमने
खंजर लेकर कल तक घूमे क्यूँ कहते सन्नाटे हैं
7 comments:
bahut khoob verma ji , badhai sweekaren.
बहुत खूब। सचमुच
रिश्ते भी बाजार से बनते अपनापन का मोल नहीं।
कबतक तौलेंगे सिक्कों से भाव जगत की बातों को।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
सुन्दर!!
प्रतिक्रियाओ के लिए धन्यवाद
टुकडो में मिलेंगे रिश्ते, किश्तों में पहचान मिलेगीचिंदी - चिंदी मिलेंगे लोग, ज़ख्म जो इतने बाटें हैं....और्
टुकडो में मिलेंगे रिश्ते, किश्तों में पहचान मिलेगीचिंदी - चिंदी मिलेंगे लोग, ज़ख्म जो इतने बाटें हैं
सच्चाई दिखाइ है आपने अपनी कविता के ज़रीये। अभिनंदन।
धन्यवाद रज़िया जी, उर्वरक प्रतिक्रिया के लिये
kya khoob likha hai......lajawab
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