सोमवार, 8 दिसंबर 2025

धूप के आखेटक


 वह हर रोज  

अपने हिस्से के धूप का  

एक छोटा-सा सपना बुनता है  

और सूरज उगने से पहले ही  

अपनी जर्जर झोपड़ी से  

बाहर निकल पड़ता है।  


उसे भ्रम सा लगता है—  

शायद आज  

मुट्ठी भर धूप 

उसकी हथेली में ठहर जाएगी।  


पर कहाँ जानता है वह,  

धूप तो चारों ओर घिरी है  

सफेद परिधान वाले आखेटकों से—  

जो किरणों को जाल में कसकर  

अपने महलों की ठंडी दीवारों में  

कैद कर लेते हैं।  


और वह…  

हर रोज की तरह  

सुबह से शाम तक  

पसीने में छलकते माथे के साथ  

उनके महलों की जगमगाहट  

देखकर खुद को तसल्ली दे लेता है।  


वह सूरज को नहीं,  

अपनी ही किस्मत को  

उगते और डूबते  

देखता रह जाता है।

10 टिप्‍पणियां:

Sweta sinha ने कहा…

रचना का शीर्षक बेहद मनमोहक है।
कविता में निहित गहन भावाभिव्यक्ति
मर्मस्पर्शी है।
सादर।
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नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ९ दिसम्बर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

M VERMA ने कहा…

धन्यवाद 😃

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह

M VERMA ने कहा…

धन्यवाद

Razia Kazmi ने कहा…

Wahh -बहुत सुंदर

M VERMA ने कहा…

Thanks 😊

हरीश कुमार ने कहा…

बहुत सुंदर

M VERMA ने कहा…

धन्यवाद

MANOJ KAYAL ने कहा…

बहुत ही सुंदर सृजन

M VERMA ने कहा…

thanks