मैं —
अपने नाम को
सिरहाने,
तकिए के नीचे रखकर सोता हूँ,
क्योंकि मुझे पता है—
अब भी सक्रिय हैं
नाम चुराने वाले,
नाम बदलने वाले।
इलाहाबाद,
तुम तो मेरी बात से सहमत ही होगे—
गंगा मंथर बहती रही,
कभी असहमति जताई क्या
तुम्हारे नाम से?
उफ़! कितना कठिन है
इलाहाबादी अमरूद को
‘प्रयागराजी’ कहना,
क्योंकि अमरूद की मिठास से अधिक
‘इलाहाबादी’ का स्वाद
जुबान पर ठहरता है।
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी भी
कभी बगावत नहीं करती—
आज भी वैसे ही
पुराने नाम की छाँव में खड़ी है।
और तुम—
मुरादाबाद, गाज़ियाबाद—
इतना मत इतराओ,
तुम्हारा हश्र भी
एक दिन यही होना है।
संस्कारित नाम मिलते ही
तुम्हारा पुराना नाम
किसी फाइल में
धीरे से दबा दिया जाएगा।
मैं इलाहाबाद नहीं होना चाहता,
मैं अपना नाम नहीं खोना चाहता।
इसीलिए हर रात
मैं अपने नाम को—
सिरहाने,
तकिए के नीचे रखकर सोता हूँ।

Wah - bahut khoob
जवाब देंहटाएंThanks 😊
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंगहन अर्थ... सुंदर अभिव्यक्ति सर।
जवाब देंहटाएंसादर।
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नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शनिवार १३ दिसम्बर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
धन्यवाद
हटाएंWah!
जवाब देंहटाएंThanks 😊
हटाएंवैसे प्रयागराज होना भी आसान नहीं है, किसी ने तो इसका भी नाम बदला ही होगा
जवाब देंहटाएंयकीनन, पर नाम बदलने की इस परम्परा का अंत कहाँ
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