चलते चलते
ये कहाँ आ गया मैं
जुमलों की घास उगी है जहाँ
शब्द बिखरे पड़े हैं,
पर अर्थ खो दिए हैं
- खुद अपने
‘अर्थ’
रास्ते भटक गए हैं
और ढूढ रहे हैं
अपने ही पदचिह्न
सिसक रहीं हैं जहाँ सिसकियाँ
हर कथन पर जहाँ हावी हैं हिचकियाँ
मेरे ही सवाल
मेरे ही सामने
लेकर खड़ी हो गईं हैं
सवालों की तख्तियाँ
जवाब नदारत है
लौटना चाहता हूँ मैं अब,
पर कैसे?
तंज भरे बगावती तेवर के साथ
पैरों ने
साफ शब्दों में मना कर दिया है।
कल शायद मिलूँ
किसी अखबार के
‘‘जनहित
सूचना’’ के काॅलम
में
जहाँ लिखा होगा -
‘‘जिसने
अर्थ खोजे थे,
वही अर्थ उसे ही निगल गए।’’

Wah - अति सुंदर
जवाब देंहटाएंThanks 😊
हटाएंओह्ह...गहन, सारगर्भित अभिव्यक्ति सर।
जवाब देंहटाएंसादर।
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नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २ दिसम्बर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आभार
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंThanks 😊
हटाएंहाबी को हावी कर लें, सार्थक सृजन
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ध्यानाकर्षण के लिये. संशोधन कर लिया
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंThanks 😊
हटाएंये कविता पढ़कर मैं थोड़ा रुक गया और खुद को उसी उलझन में खड़ा महसूस किया। आप जिस तरह सवालों को सामने ला देते हो, वो सीधे अंदर तक लग जाता है। मैं हर लाइन में वो थकान, वो भटकाव और वो बेचैनी महसूस करता हूँ, जिसे हम अक्सर छिपा लेते हैं।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, उस एहसास से रूबरू होने के लिए
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