रविवार, 30 नवंबर 2025

अर्थ-विसर्जन (The Immersion of Meaning)


चलते चलते 

ये कहाँ आ गया मैं

जुमलों की घास उगी है जहाँ

शब्द बिखरे पड़े हैं

पर अर्थ खो दिए हैं 

- खुद अपने अर्थ

 

रास्ते भटक गए हैं

और ढूढ रहे हैं 

अपने ही पदचिह्न

सिसक रहीं हैं जहाँ सिसकियाँ

हर कथन पर जहाँ हावी हैं हिचकियाँ

 

मेरे ही सवाल

मेरे ही सामने

लेकर खड़ी हो गईं हैं

सवालों की तख्तियाँ

जवाब नदारत है

 

लौटना चाहता हूँ मैं अब,

पर कैसे?

तंज भरे बगावती तेवर के साथ

पैरों ने 

साफ शब्दों में मना कर दिया है।

 

कल शायद मिलूँ

किसी अखबार के

‘‘जनहित सूचना’’ के काॅलम में 

जहाँ लिखा होगा -

‘‘जिसने अर्थ खोजे थे,

वही अर्थ उसे ही निगल गए।’’

12 टिप्‍पणियां:

Razia Kazmi ने कहा…

Wah - अति सुंदर

M VERMA ने कहा…

Thanks 😊

Sweta sinha ने कहा…

ओह्ह...गहन, सारगर्भित अभिव्यक्ति सर।
सादर।
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नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २ दिसम्बर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

M VERMA ने कहा…

आभार

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह

M VERMA ने कहा…

Thanks 😊

Anita ने कहा…

हाबी को हावी कर लें, सार्थक सृजन

M VERMA ने कहा…

शुक्रिया ध्यानाकर्षण के लिये. संशोधन कर लिया

हरीश कुमार ने कहा…

बहुत सुंदर

M VERMA ने कहा…

Thanks 😊

Admin ने कहा…

ये कविता पढ़कर मैं थोड़ा रुक गया और खुद को उसी उलझन में खड़ा महसूस किया। आप जिस तरह सवालों को सामने ला देते हो, वो सीधे अंदर तक लग जाता है। मैं हर लाइन में वो थकान, वो भटकाव और वो बेचैनी महसूस करता हूँ, जिसे हम अक्सर छिपा लेते हैं।

M VERMA ने कहा…

धन्यवाद, उस एहसास से रूबरू होने के लिए