पीये और पिलाए नहीं तो क्या किया?
पीकर भी जो लड़खडाए नहीं, तो क्या किया?
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तुम्हारी आशिकी शक के दायरे में है
नाज़नीन से पिटकर आये नहीं, तो क्या किया?
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शादीशुदा के लिए तो तोहफा है बेलन
बीबी से आजतक खाए नहीं, तो क्या किया?
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सियासत का दंभ भरते हो, कच्चे हो पर
घोटालों के लिस्ट में आये नहीं, तो क्या किया?
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माना उठ गयी थी महफ़िल जहां गए थे
और किसी बारात में खाए नहीं, तो क्या किया?
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कोई और क्यों न उठा लेगा अमानत
बुलाने पर भी तुम आये नहीं, तो क्या किया?
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माशूका मिली किसी और के पहलू में
फिर भी तुम तिलमिलाए नहीं, तो क्या किया?
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माना कि तुमने स्वर साधना नहीं किया
बाथरूम में भी जो गाये नहीं, तो क्या किया?
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नफ़रत है तुम्हें नहाने से जगजाहिर है
शादी के दिन भी नहाये नहीं, तो क्या किया?
वाआअह क्या खूब कहा :)
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-05-2019) को "प्रतिपल उठती-गिरती साँसें" (चर्चा अंक- 3349) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब आदरणीय
ReplyDeleteवाह बहुत खूब
ReplyDeleteवाह बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह रोचक प्रस्तुति...
ReplyDeleteवाह !बेहतरीन आदरणीय
ReplyDeleteनमन आप के लेखन को
सादर
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन नमन आज़ादी के दीवाने वीर सावरकर को : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteबहुत खूब , सादर नमस्कार
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteलाजवाब...
मन से निकली हुयी रचना मन तक जाती है
ReplyDeleteगुदगुदाते हुए व्यंग्य के नश्तर चुभाया गया है ...
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