बढ़िया भाव वर्मा जी , लोंन लेके गाडी खरीदी, बाहर गली में खडी की, क्योंकि घर में तो जगह ही नहीं है , दूसरी गाडी मुश्किल से क्रॉस हो पाती है चिंता है कोई ठोक न दे , तो भाईसहाब आँख भी लग जाए तो गनीमत !!!! :)
लोग 'आँख लगने' को कहते हैं सो जाना पर जबसे आँख लगी है तड़पता हूँ मैं सोने को. .............बहुत प्यारी क्षणिका है दोस्त.............ऐसे ही लिखते रहिये........आगे भी इसी तरह की रचनाओं का इन्तिज़ार रहेगा
सुंदर क्षणिकाएँ... हर कड़ी में छुपी है एक लाज़वाब भाव...भावों को शब्दों का रूप देना कोई आप से सीखे...
ReplyDeleteवर्मा जी बहुत बहुत धन्यवाद...
यूँ तो जिन्दगी खुद उधार पड़ी है ~~~~~
ReplyDeleteसही कहा , ये जिंदगी उधार की ही तो है।
वर्मा जी , घडी को ठीक कर लीजिये ।
ReplyDeleteअलंकारित पोस्ट के लिए शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteबेहतरीन !
ReplyDeleteशीर्षक क्षणिका ने तो मुग्ध कर दिया । सँजोये हुए भाव ! आभार ।
आँख लगने का अच्छा प्रयोग.
ReplyDeleteDard uker diya aapne..
ReplyDeleteBehatreen Kshanikaae...Aabhar!!
ReplyDeleteवाह क्या बात है
ReplyDeleteदोनों क्षणिकाएँ शानदार
आँख लगने का बढ़िया कथन....दोनों क्षणिकाएं गज़ब हैं....
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा व लाजवाब क्षणिकाएँ लगीं ।
ReplyDeleteबढ़िया भाव वर्मा जी ,
ReplyDeleteलोंन लेके गाडी खरीदी, बाहर गली में खडी की, क्योंकि घर में तो जगह ही नहीं है , दूसरी गाडी मुश्किल से क्रॉस हो पाती है चिंता है कोई ठोक न दे , तो भाईसहाब आँख भी लग जाए तो गनीमत !!!! :)
vaah bahut khoob | shubhakaamanaayeM
ReplyDeleteबढ़िया सुंदर भाव के साथ....सुंदर रचना...
ReplyDeleteसुन्दर अर्थपरक क्षणिकाएँ
ReplyDeleteआँख लगने का अच्छा प्रयोग.
ReplyDeleteकहाँ लगी यह तो बताया नहीं ......?
ReplyDeleteBahut khoob! Gagarme sagar!
ReplyDeleteलोग 'आँख लगने' को कहते हैं सो जाना पर जबसे आँख लगी है तड़पता हूँ मैं सोने को.
ReplyDeletekya baat kahi hai.........ati sundar.
लोग 'आँख लगने' को कहते हैं सो जाना पर जबसे आँख लगी है तड़पता हूँ मैं सोने को.
ReplyDeleteवाह .....बहुत ही अच्छी है आपकी रचना !!
जबसे आँख लगी है तड़पता हूँ मैं सोने को. सुंदर क्षणिकाएँ
ReplyDeleteहर पंक्ति में गहरे भाव, बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
ReplyDeleteउधार की कार ? उधार का जीवन
ReplyDeletewaah aankh ke lagne -lagne main bhi kitna farak hota hai...bahut sundar rachna.
ReplyDeleteलोग 'आँख लगने' को कहते हैं सो जाना
ReplyDeleteपर जबसे आँख लगी है तड़पता हूँ मैं सोने को.
.............बहुत प्यारी क्षणिका है दोस्त.............ऐसे ही लिखते रहिये........आगे भी इसी तरह की रचनाओं का इन्तिज़ार रहेगा
बहुत ही शानदार.
ReplyDeleteरामराम.
.....सुन्दर रचनाएं!!!
ReplyDeleteबहुत उम्दा बात कही!
ReplyDeletewah. wah.
ReplyDeletewah, lajwaab
ReplyDeleteये आँख भी खूब लगी ....
ReplyDeleteघर के बाहर कार कड़ी हो तो उधार की लगती है ..??
कल से अन्दर रख देंगे ...:)
sunder kshanikaye...bahut gehri baate keh di.
ReplyDeleteBahut hi sundar gazal,Badhai.
ReplyDeleteवाह वर्मा जी ... जब से आख लगी है ... सो नही पाता .... लाजवाब .. क्या बात है ...
ReplyDeleteतब देख के छुपते थे ... अब देखते हैं छुप कर ...
जिंदगी उधार पड़ी है--
ReplyDeleteजिंदगी की गाथा है ,बधाई
वाह कम शब्दों में आपने सब कुछ कह दिया है! बेहद पसंद आया! अत्यंत सुन्दर प्रस्तुती !
ReplyDeleteवाह जी बहुत सुंदर
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