Tuesday, February 2, 2010

इतने काँटे कौन बोया?

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रात रोया

दिन ढोया

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इतने काँटे

कौन बोया?

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रूठी रोटी

भूखा सोया

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खुद ताउम्र

खुदी खोया

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दाग पक्के

खूब धोया

30 comments:

  1. पक्के दाग कभी नहीं छूटते ..... बहुत सही और सटीक कविता....

    नोट: लखनऊ से बाहर होने की वजह से .... काफी दिनों तक नहीं आ पाया ....माफ़ी चाहता हूँ....

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  2. अति सूक्षम, अति प्रभावशाली।

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  3. सच्चाई को दर्शाती हुई बहुत सुन्दर रचना ! हर एक शब्द में गहराई है और मुझे आपकी ये कविता बेहद पसंद आया! बधाई!

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  4. ..... कमाल-धमाल .... बेहतरीन रचना !!!

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  5. शब्द और भाव सौन्दर्य ने तो चुंधिया ही दिया....लाजवाब...बेजोड़...अतिसुन्दर...

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  6. दाग पक्के धोने से कहाँ मिटते हैं ...कई बार और मटमैला कर जाते हैं ....अच्छा है दाग को स्वीकार करें ...साहस के साथ ...
    इतना कुछ सोचने को मजबूर कर गयी आपकी कविता ..

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  7. इतने कम शब्द और इतनी सुन्दर रचना!!!! ऐसी बानगी कम मिलती है...
    जय हिंद...

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  8. अपने तरह की एक अलग कहन
    अदभुत शिल्प
    वाह क्या कविता है

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  9. लाजवाब -----कमाल --- एक दम अलग अंदाज मे बहुत सुन्दर । बधाई

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  10. शब्दों का सार्थक उपयोग

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  11. कितनी गहरी और कितनी लंबी बात इस माइक्रो पोस्ट ......... सत्य, सटीक बातें कहना आपकी ख़ासियत है वर्मा जी ........ और वो झलक आज की रचना में भी नज़र आ रही है .........

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  12. दो शब्द
    बहुत कुछ कह जाते हैं। अब पता चला।

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  13. Aadarniya varma ji
    ek gahari anu bhuti ko darshati aati sundar aur behatareen rachna.

    poonam

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  14. रूठी रोटी
    भूखा सोया
    दाग पक्के
    खूब धोया

    बहुत खूब !
    दिन को हंसा
    रात रोया !!

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  15. वाह....दो - दो शब्दों का इतना कमाल.....और हर शब्द में जिंदगी का फलसफा

    बहुत खूब

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  16. हर शब्‍द गहरे भावों के साथ लाजवाब प्रस्‍तुति ।

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  17. अतिसुन्दर...लाजवाब!बधाई!!

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  18. Maaf kijiyga kai dino busy hone ke kaaran blog par nahi aa skaa

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  19. bahut hi achhi kavita hai

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