सोमवार, 15 दिसंबर 2025

“अभी सपनों पर पाबंदी नहीं लगी”

सपने भी देखना चाहिए

क्योंकि सपने
ज़िंदा रहने का सबूत होते हैं।

 

कुछ सपने
मैं रिकमेंड करता हूँ
ज़रूर देखना

बिना साम्प्रदायिकता भड़काए
बनने वाली सरकार का,

स्वच्छ हवा में साँस लेने के
अपने अधिकार का।

हो सके तो सपने देखना
फिर से बसते हुए
बुलडोज़री संस्कृति से
विनष्ट हुए परिवारों का।

 

माना
अमन-चैन
अब सरकारी फ़ाइलों में
सीलबंद शब्द हो गया है,

मगर सपनों पर
अभी किसी अध्यादेश की
मुहर नहीं लगी।

 

माना
डर ने
चौराहों पर पहरा बिठा दिया है,

और सवाल पूछने से पहले
लोग अपनी ज़ुबान
टटोल लेते हैं

फिर भी
सपने अब भी पूछते हैं
कब तक?”

 

माना
सच
आज भीड़ के शोर में
अकेला खड़ा है,

लेकिन सपनों की तादाद
अब भी
झूठ से ज़्यादा है।

 

इसलिए
सपने देखना जारी रखिए

इतने ज़िद्दी
कि नफ़रत थक जाए,

इतने साफ़
कि हवा को भी
शर्म आ जाए,

इतने ज़िंदा
कि एक दिन
हक़ीक़त को बदलने की
हिम्मत कर सकें।


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