कुछ दिन पहले
मैं
वंदे भारत ट्रेन से
अपने
गृहनगर –
वाराणसी जा रहा था।
सफर आधे रास्ते पहुँचा ही था
कि
बोगी नम्बर छह में
आइंस्टीन
बैठे मिले—
साधारण
यात्रियों के बीच
एक
असाधारण मुसाफ़िर की तरह।
ट्रेन पटरी पर भागती रही,
पर
वे—
समय
की परतों में
धीरे-धीरे
उतरते जा रहे थे;
जैसे
हर झटका,
हर
मोड़,
उनकी
किसी पुरानी समीकरण को
फिर
से जागृत कर रहा हो।
स्टेशन आया—
लोग
उतरे, लोग चढ़े,
और
आइंस्टीन ने खिड़की से झाँककर कहा,
“देखो… हम सब टाइम-ट्रैवलर हैं।
फ़र्क
बस इतना है कि
कोई
अपने अतीत में अटका है,
कोई
भविष्य की चिंता ढोता है,
और
कोई वर्तमान को
दोनों
मुट्ठियों में पकड़े
खड़ा
रह जाता है।”
उसी वक़्त टी-टी ने झुककर पूछा—
“सर, कहाँ उतरना है?”
आइंस्टीन हल्के से मुस्कुराए,
उनकी
आँखें जैसे क्षितिज को नाप रही हों।
“मनुष्य
का स्टेशन कोई नहीं,”
वे
बोले,
“वह
हर जगह उतरता है—
कुछ
पल के लिए,
कुछ
भ्रम के लिए—
पर
पहुँचता कहीं भी नहीं।
उसका
सफ़र
हमेशा
उसके अंदर चलता रहता है।”

3 टिप्पणियां:
Wahh अनोखी यात्रा
😊 Thanks
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