तुमने कहा -- रूको, मत जाओ मैनें समझा -- रूको मत, जाओ और मैं चुपचाप चला आया था -- उस दिन बिना किसी शोर बिना किसी तूफान कितना भयानक ज़लज़ला आया था -- उस दिन काश ! तुमने देखा होता चट्टान का खिसकना काश ! तुमने भी देखा होता वह मंजर जब एक मकान ढहा था अधबना और उड़ने को आतुर एक कबूतर दब गया था शायद यह -- ‘वैयाकरण’ की साजिश थी
8 comments:
Waah sir
धन्यवाद
सुन्दर कविता
धन्यवाद
ओह्ह्ह.. वाहह्हह... हृदयस्पर्शी रचना।
बिंब तो क़माल का है... 👌👌
शुक्रिया
वाह क्या खूब कहा...
शुक्रिया
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