Saturday, October 22, 2016

एक चिड़िया मरी पड़ी थी










बलखाती थी
वह हर सुबह 
धूप से बतियाती थी
फिर कुमुदिनी-सी 
खिल जाती थी
गुनगुनाती थी 
वह षोडसी
अपनी उम्र से बेखबर थी
वह तो अनुनादित स्वर थी 
सहेलियों संग प्रगाढ़ मेल था 
लुका-छिपी उसका प्रिय खेल था
खेल-खेल में एक दिन
छुपी थी इसी खंडहर में
वह घंटों तक 
वापस नहीं आई थी
हर ओर उदासी छाई थी
मसली हुई 
अधखिली वह कली
घंटों बाद 
शान से खड़े 
एक बुर्ज के पास मिली
अपनी उघड़ी हुई देह से भी
वह तो बेखबर थी
अब कहाँ वह भला
अनुनादित स्वर थी 
रंग बिखेरने को आतुर
अब वह मेहन्दी नहीं थी 
अब वह कल-कल करती
पहाड़ी नदी नहीं थी
टूटी हुई चूड़ियाँ 
सारी दास्तान कह रही थीं
ढहते हुए उस खंडहर-सा 
वह खुद ढह रही थी
चश्मदीदों ने बताया
जहाँ वह खड़ी थी 
कुछ ही दूरी पर 
एक चिड़िया मरी पड़ी थी

8 comments:

  1. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-10-2016) के चर्चा मंच "अर्जुन बिना धनुष तीर, राम नाम की शक्ति" {चर्चा अंक- 2504} पर भी होगी!
    अहोई अष्टमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत गहरी रचना ... प्रतीकात्मक भाव झँझोड़ते हैं ...

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  3. बुहत खूबसूरत !!

    REALLY HEART TOCHING STORY SIR...

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  4. मार्मिक अभिव्यक्ति

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  5. उफ्फ! क्या कहूँ!!! मार्मिक चित्रण.

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  6. वाह के साथ एक आह भी निकली मन से

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