
मैंने देखा है
अपने जवान पश्नों को
उन बज्र सरीखे दीवारों से टकराकर
सर फोड़ते हुए
जिसके पीछे अवयस्क बालाएँ
अट्टहासों की चहलकदमी के बीच
यंत्रवत वयस्क बना दी जाती है
और
बेशरम छतें भरभराकर ढहती भी नहीं हैं
मैनें देखा है
आक्सीजन की आपूर्ति बन्द कर देने के कारण
अपने नवजात, नाजुक और अबोध
प्रश्नों को दम तोड़ते हुए
अक्सर मैं इनके शवों को
कुँवारी की कोख से जन्मे शिशु-सा
कंटीली झाड़ियों के बीच से उठाता हूँ
बहुत त्रासद है
कोखजने को दम तोड़ते हुए देखना
और फिर खुद ही दफनाना
हिचकियाँ भी तो प्रश्नों का रूपांतरण ही हैं
तभी तो मैं इन्हें जन्म ही नहीं लेने देता
और आँसुओं की हर सम्भावना का
गला घोट देता हूँ
जी हाँ! यही सच है
अब मैं अपने तमाम प्रश्नों का गला
मानस कोख में ही घोट देता हूँ
मेरा अगला कदम
उस कोख को ही निकाल फेंकना है
जहाँ से इनका जन्म सम्भावित है
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 20-10-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2501 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
उफ्फ! कवि कितना दर्द महसूस कर सकता है!!!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-10-2016) के चर्चा मंच "करवा चौथ की फिर राम-राम" {चर्चा अंक- 2502} पर भी होगी!
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद
ReplyDeleteगज़ब कर दिया ..........एक पीड़ा को शब्द दे दिए लेकिन ऐसा आप करना नहीं .......प्रश्न होंगे तभी उत्तर संभावित हैं और जीवन भी .......बधाई
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ReplyDeleteबहुत दिनों बाद कलम चली आपकी वर्मा जी...अच्छा लगा....अच्छा लगा दिल की पीड़ा को शब्द दिए.. बहुत खूब
गहरे क्षोभ से उपजी रचना है ... शब्दों में अंतस पीढ़ा का बोध मन को उद्वेलित करता है ...
ReplyDeleteप्रश्न, आँसू , भावनायें - सब अजन्मे हो जाएँ, यही सही है
ReplyDeleteकुछ न कर पाने की स्थिति से बेहतर है बंजर हो जाना
बहुत आक्रोश है आपके शब्दों में लेकिन कोख चाहे शरीर की हो या मन की सृष्टि का तो स्त्रोत तो वही है उसीको उखाड फेंकना...........। पर अच्छा लगा आपके ब्ल़ॉग पर आ कर।
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