अपना कोई चेहरा
नही होता है भीड़ का,
भीड़ में मगर
अनगिन चेहरे होते हैं.
भीड़ में
जब लोग बोलते हैं,
तब समवेत स्वर
संवाद से परे हो जाता है.
भीड़ गुनती नहीं है कुछ भी;
भीड़ सुनती नहीं है कुछ भी,
भीड़ में मगर
अनगिन कान होते हैं.
कदहीन भीड़ भी
अक्सर आदमकद होती है,
जवाबदेही से परे
भीड़ निरंकुश होती है.
सत्य नहीं देख पाती है भीड़
क्योंकि,
भीड़ में आँखे तो होती हैं अनेक
पर नहीं होती है
भीड़ की आँखे.
भीड़ का मंतव्य भी
तय नहीं होता है;
भीड़ का गंतव्य भी
तय नहीं होता है,
क्योंकि,
अनगिन पाँव होते हुए भी
अपने पैरों पर
कब चली है भीड़ !!
सही बात है ..
ReplyDeleteअसल मुद्दा को ध्यान से बँटा देती है,
तादाद अक्सर स्तर को घटा देती है ....
अच्छी रचना, लिखते रहिये...
bahut badhiya rachana.....abhaar
ReplyDeleteकविता के माध्यम से समाज का सच उकेर दिया...बहुत खूबसूरत भाव...बधाई.
ReplyDeleteभीड का वास्तविक चित्रण!भीड का ’अकेलापन’ भी एक अहसास है जो बहुत सालता है!
ReplyDeleteभीड़ का गंतव्य भी तय नहीं होता है, क्योंकि, अनगिन पाँव होते हुए भी अपने पैरों पर कब चली है भीड़ !!
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा………………बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
अपना कोई चेहरा
ReplyDeleteनही होता है भीड़ का,
भीड़ में मगर
अनगिन चेहरे होते हैं.
भीड़ में
जब लोग बोलते हैं,
तब समवेत स्वर
संवाद से परे हो जाता है.
bahut hi badhiyaa
क्योंकि,
ReplyDeleteभीड़ में आँखे तो होती हैं अनेक
पर नहीं होती है
भीड़ की आँखे.
भीड़ का मंतव्य भी
तय नहीं होता है;
भीड़ का गंतव्य भी
तय नहीं होता है,
क्योंकि,
अनगिन पाँव होते हुए भी
अपने पैरों पर
कब चली है भीड़ !!
बहुत खूबसूरत भाव...बधाई!!!
अपने पाँव पर कब चली है भीड़ , बहुत सही कहा , बस भीड़ को दिशा देने वाला सही मार्गदर्शक हो ..
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteउत्तम रचना....बेहतरीन भावों से सजी लाजवाब पंक्तियाँ.... M VERMA JI
yahi to vidambna hai ...ek sacchi kavayad!
ReplyDeleteक्योंकि,
ReplyDeleteअनगिन पाँव होते हुए भी
अपने पैरों पर
कब चली है भीड़ !!
aapki baate bilkul uchit hai ,behtrin rachna .
भीड़ की मानसिकता का बहुत सुन्दर विश्लेषण और प्रस्तुति..आभार..
ReplyDeletebahut hi sundar rachna
ReplyDeleteaabhar
बहुत ही सुन्दर शब्द, बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteभीड़ --यानि अनेकता में एकता और एकता में अनेकता । बहुत खूब ।
ReplyDeleteलेकिन भीड़ भाड़ में भाड़ का क्या अर्थ है ? कृपया यह भी बताएं ।
... बहुत सुन्दर ... प्रसंशनीय रचना, बधाई !
ReplyDeleteअनगिन पाँव होते हुए भी
ReplyDeleteअपने पैरों पर
कब चली है भीड़ !!
अपने सच कहा ... भीड़ वो खिलौना है जिसे कोई सियासी दिमाग चाबी लगता है ... बहुत अच्छी रचना ...
सच है भीड़ का न कोई चेहरा होता है और न ही अलग कोई स्वर ...बहुत अच्छी प्रस्तुति ..
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 12 -10 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
ReplyDeleteकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
Behad sundar rachana!
ReplyDeletePichhalee 2 baar comment box nazar nahi aaya tha,isliye comment nahi kar payi thi!
भीड़ का गंतव्य भी
ReplyDeleteतय नहीं होता है,
क्योंकि,
अनगिन पाँव होते हुए भी
अपने पैरों पर
कब चली है भीड़ !!
--
सही आकलन करके आपने बहुत ही सटीक रचना को जन्म दिया है!
बहुत सुंदर रचना धन्यवाद
ReplyDeleteभीड़ का अपना अलग व्यक्तित्व होता है।
ReplyDeleteभीड़ का एक एक चित्र उकेर दिया आपने .बहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने...
ReplyDeleteबहुत उम्दा रचना.
भीड़ के मनोविज्ञान पर अच्छा प्रहार ...!
ReplyDeleteभीड़ के पास एक और चीज़ अनुपस्थित होती है वह है दिमाग।
ReplyDeleteसत्य ... बहुत ही यथार्थ लिखा है ... भीड़ लक्ष्यहीन हो जाती है तभी तो बहुत कुछ होते हुवे भी कुछ नही होती .....
ReplyDeleteबहुत खूब ...बहुत पसंद आई यह शुक्रिया
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक रचना...लेकिन भीड़ को दिशा देने वाला भी कोई न कोई तो होता ही है क्योकि भीड़ और भेड़ की अपनी कोई चाल और दिशा होती ही नहीं है ....?
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना! उम्दा प्रस्तुती!
ReplyDelete....
ReplyDeleteअनगिन पाँव होते हुए भी
अपने पैरों पर
कब चली है भीड़ !!
..बेहतरीन कविता की इन पंक्तियों ने मंत्रमुग्ध कर दिया।..वाह !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ! सच है की भीड़ में इन्सान अपनी सोचने की क्षमता खो देता है ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता...बधाई.
ReplyDeleteSach hai! Bheed ka bartaav behad daravna hota hai! Aur uspe kisi kaa bas nahi chalta!
ReplyDeleteBheed ka koee chehera nahee hota na hee koee gantawya. Bheed to bas ek jonoon hota hai kis bat ka ye use bhee pata nahee hota.
ReplyDeletehamesha kee tarah utkrushta rachna. Abhar.
बहुत सही कहा ...
ReplyDeleteभीड़ तो अन्धी जो चाहे हाँक दे।
www.srijanshikhar.blogspot.com पर " क्योँ जिन्दा हो रावण "
बहुत सही कहा ...
ReplyDeleteभीड़ तो अन्धी जो चाहे हाँक दे।
www.srijanshikhar.blogspot.com पर " क्योँ जिन्दा हो रावण "
कदहीन भीड़ भी अक्सर आदमकद होती है.....अनगिन पाँव होते हुए भी अपने पैरों पर कब चली है भीड़....भीड़ का कितना सही निरूपण किया है आपने.
ReplyDeleteवाह.
ReplyDeletebahut khoobsurti se likha hai .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता... भीड का बिम्ब लेकर अच्छी कविता.. सच कहा आप्ने.. कदहीन भीड का कद आदमकद होता है..
ReplyDeleteSach Yahii hai bheed
ReplyDelete"भीड़ गुनती नहीं है कुछ भी;
ReplyDeleteभीड़ सुनती नहीं है कुछ भी,"
भीड़ की मानसिकता और चरित्र की सुंदर और सटीक अभिव्यक्ति. आभार.
सादर
डोरोथी.
जय बोलो इस भीड़ की जिसका अपना कुछ नहीं फिर भी सारा जहां मुठी में.
ReplyDeleteसशक्त रचना.
भीड़ गुनती नहीं है कुछ भी;
ReplyDeleteभीड़ सुनती नहीं है
बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ........
भीड़ का इतना सुन्दर चित्रण किया है आपकी कविता ने ..और वाकई में भीड़ की सत्यता है की वो अंधी, बहरी, दिशाविहीन और पागल होती है ... अतः भीड़ के चपेटे में आना बहुत खतरनाक भी होता है.. जबकि भीड़ किसी बात पे आक्रोशित हो..
ReplyDeleteविजयदसमी पर बुराई के खात्मे का आह्वाहन करते हुवे में आपको शुभकामनाये और दश्हेरा की बधाई देती हूँ.. ..
हमारे शहर में बे चेहरा लोग रहते हैं
ReplyDeleteकभी कभी कोइ चेहरा दिखाई देता है.
आपकी कविता ने इस शेर की याद ताज़ा कर दी. अच्छी रचना.
बहुत सटीक और सार्थक ...
ReplyDeleteयकीन माने बहुत शिद्दत से महसूस किया है आपकी इस कविता को कई बार ..
ये और बात है कि उसे इस तरह शब्दों में ढालने का खन न आया
बहुत सुन्दर रचना !
ReplyDeleteभीड़ का चेहरा डरावना होता है ...
सच कहा, पार्थ को तो लडना ही होता है। क्योंकि यही नियति है।
ReplyDeleteaahvahn krti ek ojpoorn kvita jiska khule dil se swagat krna chahiye .
ReplyDeletebhut bhut dhnywaad .
अनगिन पाँव होते हुए भी अपने पैरों पर कब चली है भीड़ !!
ReplyDeleteसच है। भीड़ तो भेड़ चाल चलती है।
उचित संबोधन।
ReplyDelete