Wednesday, July 14, 2010

शिनाख़्त करो खुद की



शहर के इन रेंगते वाहनों के बीच
शिनाख़्त करो खुद की
जीजिविषा से परे
हर पल डरे-डरे
मुट्ठी में रेत लिये
क्या तुम खुद ही के ख़िलाफ़
खड़े नहीं हो जाते हो?
अपने ही कद से
बड़े होने की कोशिश में
चौराहों के आदमख़ोर जंगल में
ख़ुद का कद -
और बौना नहीं पाते हो?


हुलिया ये है कि
तुम्हारा तो कोई हुलिया ही नहीं है
तन्दूर से गुर्दे तक
तुम कहीं भी पाए जा सकते हो
हर सच के एवज़ में
तुम झुठलाए जा सकते हो.
ज़मीर पर खड़े होने के ज़ुर्म में
तुम जमीन से काट दिए गये हो
बोटियों की शक्ल में तुम
चन्द लोगों में बाँट दिए गये हो.
उम्र से तो तुम
ख़ुद की शिनाख़्त कर ही नहीं सकते
क्योंकि तुम हर उम्र के हो,
पर हमेशा तुम
अपने उम्र से बड़े दिखते हो
अपने लहू से
कारपेट रंगते बच्चे से लेकर
अपने खोये बच्चे को तलाशते
अनगिन झुर्रियों वाले बाप के बीच
तुम्हारी कोई भी उम्र हो सकती है.
तुम्हारे पैरों की बिवाईयों सा
फटा-चिथड़ा है तुम्हारा लिबास
जब तुम सपने देखते हो
तुम्हें लगता है कि अपने देखते हो
त्रासदी ये है कि
तुम्हारा कोई सपना ही नहीं है
तुम्हारे इर्द-गिर्द
तुम्हारा कोई अपना ही नहीं है.
हक़ीकत है कि
तुम्हारी कई पीढ़ियाँ भटक रही हैं
तलाशती हुई खुद को
हुलिया, उम्र और लिबास से
क्योंकि वे परे हैं
जीजिविषा, आस्था और विश्वास से
तुम्हारी शिनाख़्त तो
ख़ुद ब ख़ुद हो जायेगी
जब तुम शिनाख़्त कर लोगे उनकी
जो तुम्हें तुमसे ही बांट रहे हैं
तुम्हारे ही हाथों तुम्हें ही काट रहे हैं


आसमाँ की बुलन्दियों पर
तुम्हारी पहचान उभरेगी
तुम अपनी मुट्ठियाँ
हवा में लहराकर तो देखो

54 comments:

Parul kanani said...

wah sir..har pankti apne aap mein umda hai..ek kasak khud ke saath khade hone ki liye..ye rachna dil ajij lagi!

संजय भास्‍कर said...

सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

संजय भास्‍कर said...

सोचने को मजबूर करती है आपकी यह रचना !

दिगम्बर नासवा said...

आसमाँ की बुलन्दियों पर
तुम्हारी पहचान उभरेगी
तुम अपनी मुट्ठियाँ
हवा में लहराकर तो देखो

बहुत खूब लिखा है वर्मा जी ... इंसान बस अपनी पहचान ही नही कर पाता .... अपना जनून नही पहचान पाता ... अपनी पहचान कर ले तो पूरी दुनिया जीती जा सकती है ... आशा और जुनून है इस रचना में ...

Razia said...

बहुत सुन्दर
आम आदमी की त्रासद कथा बहुत सुन्दरता से
और फिर आशा का दामन भी तो है

vandana gupta said...

एक सत्य को परिभाषित करती बहुत ही शानदार रचना है………………दिल को छू गयी।

Sunil Kumar said...

त्रासदी ये है कि
तुम्हारा कोई सपना ही नहीं है
तुम्हारे इर्द-गिर्द
तुम्हारा कोई अपना ही नहीं है. सारगर्भित रचना बधाई

شہروز said...

BHAI KYA BAT HAI.....BEHAD TIKSHN AUR BHEDAK!
ACHCHI KAVITA PADHWANE K LIYE AABHAAR !

Udan Tashtari said...

आसमाँ की बुलन्दियों पर
तुम्हारी पहचान उभरेगी
तुम अपनी मुट्ठियाँ
हवा में लहराकर तो देखो

-क्या बात है..गज़ब!!

अनामिका की सदायें ...... said...

शब्द नहीं बचे हैं कुछ कहने को...कविता को पढ़ कर एक मवाद सा भरने लगा है मन में..

honesty project democracy said...

आसमाँ की बुलन्दियों पर
तुम्हारी पहचान उभरेगी
तुम अपनी मुट्ठियाँ
हवा में लहराकर तो देखो

सबसे सही बात और आज इसकी सख्त जरूरत है | हर किसी की पहचान खोती जा रही है इस भाग-दौर भरी दुनिया में | क्योकि भ्रष्ट लोगों ने सामाजिक असंतुलन की भयावहता खरी कर दी है सरकारी खजाने को बुरी तरह लूटकर जिसके खिलाफ सबको मुट्ठियाँ एकजुट होकर हवा में लहराने की जरूरत है |

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आसमाँ की बुलन्दियों पर
तुम्हारी पहचान उभरेगी
तुम अपनी मुट्ठियाँ
हवा में लहराकर तो देखो
--
बहुत ही प्रभावशाली अभिव्यक्ति!
--
आपकी इसी विशेषता के तो हम कायल हैं!

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर ओर भाव पुर्ण कविता. धन्यवाद

डॉ टी एस दराल said...

वाह , आम आदमी की त्रासदी ।
खुद की खुद से पहचान कराती रचना ।

AMAN said...

बहुत सुन्दर रचना

प्रवीण पाण्डेय said...

हवा में लहराने का अन्दाज़ तो सीथना ही पड़ेगा। जीना उसी को कहते हैं।

मनोज कुमार said...

अपनी सूक्ष्‍म कमज़ोरियों का चिन्‍तन करके उन्‍हें मिटा देना यही स्‍व-चिन्‍तन है।

संगीता पुरी said...

बहुत ही प्रभावी .. सुंदर प्रस्‍तुति !!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

झकझोर देने वाली रचना....बहुत सटीक अभिव्यक्ति...

Sadhana Vaid said...

बहुत ही सशक्त और गंभीर रचना ! इतनी कि तारीफ़ के लिये शब्द ढूँढे नहीं मिल पा रहे हैं !

हुलिया ये है कि
तुम्हारा तो कोई हुलिया ही नहीं है
तन्दूर से गुर्दे तक
तुम कहीं भी पाए जा सकते हो
हर सच के एवज़ में
तुम झुठलाए जा सकते हो.
ज़मीर पर खड़े होने के ज़ुर्म में
तुम जमीन से काट दिए गये हो
बोटियों की शक्ल में तुम
चन्द लोगों में बाँट दिए गये हो.

शानदार रचना के लिये बहुत सारी शुभकामनाएं और आभार !

दीपक 'मशाल' said...

अलख जगाती रचना के लिए आभार सर...

राजकुमार सोनी said...

अजी वर्मा साहब
आज तो आपने क्रांति की अपील कर डाली.
जरूरी थी यह शिनाख्त
मुझे तो आपकी रचना हमेशा अच्छी लगती है.. आज तो बहुत ही शानदार और जानदार है.

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

तुम कहीं भी पाए जा सकते हो
हर सच के एवज़ में
तुम झुठलाए जा सकते हो.
ज़मीर पर खड़े होने के ज़ुर्म में
तुम जमीन से काट दिए गये हो
बोटियों की शक्ल में तुम
चन्द लोगों में बाँट दिए गये हो.

बेहतरीन पंक्तियाँ ! सुन्दर रचना !

रश्मि प्रभा... said...

gr8......bahut badhiyaa

रश्मि प्रभा... said...

nihshabd

शिवम् मिश्रा said...

एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
आपकी चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं

Jyoti said...

बेहद खूबसूरत आह्वान ...........

Akshitaa (Pakhi) said...

बहुत सुन्दर रचना...
_____________________
'पाखी की दुनिया' के एक साल पूरे

Vinay said...

बहुत सुन्दर कृति

Himanshu Mohan said...

हौसला इसे कहते हैं - हवा में मुट्ठियाँ लहरा कर तो देखो - जैसे कभी दुष्यंत ने कहा था - "एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!
बहुत खूब!

Yogesh Sharma said...

bahut sundar....aur bahut badhiya shailee

Vinashaay sharma said...

बहुत अच्छा लिखा है,तुम्हारी अपनी पहचान नहीं है,भटक रहीं हैं,कई पीड़ीयां ......

कडुवासच said...

... बेहतरीन अभिव्यक्ति,बधाई!!!

Alpana Verma said...

ज़मीर पर खड़े होने के ज़ुर्म में
तुम जमीन से काट दिए गये हो
--
बहुत अच्छी कविता है.

Akshitaa (Pakhi) said...

सुन्दर विचार....सुन्दर कविता.

___________________
'पाखी की दुनिया' में समीर अंकल के 'प्यारे-प्यारे पंछी' चूं-चूं कर रहे हैं...

शरद कोकास said...

बहुत बढ़िया

हर्षिता said...

सारगर्भित एवं प्रभावपूर्ण रचना है।

रचना दीक्षित said...

आसमाँ की बुलन्दियों पर
तुम्हारी पहचान उभरेगी
तुम अपनी मुट्ठियाँ
हवा में लहराकर तो देखो
सोचने को मजबूर बहुत भाव विभोर करती पोस्ट !

सूर्यकान्त गुप्ता said...

एक सत्य को परिभाषित करती बहुत ही शानदार रचना है…

नीरज गोस्वामी said...

इस बेजोड़ कविता की प्रशंशा शब्दों में संभव नहीं...वाह...
नीरज

वाणी गीत said...

जब तुम शिनाख़्त कर लोगे उनकी
जो तुम्हें तुमसे ही बांट रहे हैं
तुम्हारे ही हाथों तुम्हें ही काट रहे हैं

आसमाँ की बुलन्दियों पर
तुम्हारी पहचान उभरेगी
तुम अपनी मुट्ठियाँ
हवा में लहराकर तो देखो

उम्मीद का दामन जरा कस कर पकड़ना होगा ....!

चैन सिंह शेखावत said...

आसमाँ की बुलन्दियों पर
तुम्हारी पहचान उभरेगी
तुम अपनी मुट्ठियाँ
हवा में लहराकर तो देखो

हवा क्या आह्वान है....

प्रभावशाली कलम...बधाई..

KK Yadav said...

तुम खुद ही के ख़िलाफ़
खड़े नहीं हो जाते हो?
अपने ही कद से
बड़े होने की कोशिश में

....सोचने पर मजबूर...बेहतरीन लिखा ...बधाई.

Coral said...

बहुत सुन्दर रचना के लिए बधाई !

Aruna Kapoor said...

जीजिविषा से परे
हर पल डरे-डरे
मुट्ठी में रेत लिये
क्या तुम खुद ही के ख़िलाफ़
खड़े नहीं हो जाते हो?
शिक्षाप्रद और प्रेरणा जगाने वाली रचना!....बधाई!

Anonymous said...

यह रह गई थी...
बेहतर...

हरकीरत ' हीर' said...

मनुष्य के अन्दर की जलती बुझती जिजीविषा की सुंदर अभिव्यक्ति है आपकी कविता .......!!!

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

लाजवाब व ख़ूबसूरत...... वक़्त की कमी की वजह से नहीं आ पाया.... आप तो समझते ही हैं....

Renu Sharma said...

varma ji namaskar

tash ke mahal sa
kanpata hai makan
neenv ko kuchh log
hila rahe honge

bahut hi khoob likha hai

ज्योति सिंह said...

मुट्ठी में रेत लिये
क्या तुम खुद ही के ख़िलाफ़
खड़े नहीं हो जाते हो?
अपने आप मे अनोखी रचना ,बेहतरिन

Apanatva said...

ek se bad kar ek ek line..........gahre arth liye........jeevan ko aatm vishvas ke sath jeene ka sandesh detee sunder abhivykti..........




तुम अपनी मुट्ठियाँ
हवा में लहराकर तो देखो
wah kya baat hai............

पूनम श्रीवास्तव said...

aadarniy sir aapki kavita ki ek -ek panktiyan apni sarthakta ko bahut hi koobsurat avam prabhavshalise bayan kar rahi hain.
poonam

Asha Joglekar said...

जब तुम शिनाख़्त कर लोगे उनकी
जो तुम्हें तुमसे ही बांट रहे हैं
तुम्हारे ही हाथों तुम्हें ही काट रहे हैं .
आसमाँ की बुलन्दियों पर
तुम्हारी पहचान उभरेगी
तुम अपनी मुट्ठियाँ
हवा में लहराकर तो देखो

त्रासदी भी और आशा और उत्साह भी । बेहतरीन रचना ।

Kunwar Kusumesh said...

आसमाँ की बुलन्दियों पर
तुम्हारी पहचान उभरेगी
तुम अपनी मुट्ठियाँ
हवा में लहराकर तो देखो

जोश भरती हुई दमदार पंक्तियाँ.