इन दीवारों पर
चढ़ा दो
एक और कोट,
नजर नहीं आना चाहिए
इन दीवारों का
कोई खोट.
हो सके तो ढक देना
उस
उखड़े हुए पलस्तर को भी,
छुपा दो उन संत्रासों को
जो इनके जिस्म पर
कील गाड़ने के कारण उगे हैं.
रंग दो -
दर्द की हर लकीर को
मुस्कराते हुए रंगों से,
दिखे नहीं
उन ईंटों की भोथरी शक्लें
जो नींव से जुड़ी हैं
ढक दो
इनकी जर्जरता को
सुन्दर लहरदार टाईलों से
.
भुरभुरापन न दिखे तो
मुझे अब फर्क नहीं पड़ता
इसके भुरभुरे अस्तित्व से भी
क्योंकि अब
यह मकान बिकने वाला है
मानवीय संवेदनाएं भी आज कल ऐसी हो गई है लोग बाहर से रंग रोगन करवा कर अंदर की गन्दगी को छुपाने में लगे हुए हैं
ReplyDeleteबहुत बढ़िया भाव
बहुयामी पंक्तियाँ कितने विषयों पर सटीक उतरती है यह कविता किसी के लिए भी हो सकती है ..एक नगर वधु का दर्द ,एक पुराना शहर या एक टूटन की कगार पर खड़ा रिश्ता
ReplyDeleteबहुत खूब, वर्मा जी
ReplyDelete..........फर्क नहीं पड़ता
क्योंकि यह मकान अब बिकने वाला है !
इटली के खरीददार तैयार बैठे है !!!!
बढ़िया लिखा है वर्मा जी । मनुष्य की सोच अब ऐसी ही हो गई है।
ReplyDeleteगहरे एहसास...प्रभावशाली प्रस्तुति है
ReplyDeleteक्या कहूँ...आह या वाह...
ReplyDeleteनिःशब्द कर दिया इस अद्भुद रचना ने....
अतिसुन्दर ,अद्वितीय !!!
- दर्द की हर लकीर को मुस्कराते हुए रंगों से, दिखे नहीं उन ईंटों की भोथरी शक्लें जो नींव से जुड़ी हैं ढक दो इनकी जर्जरता को सुन्दर लहरदार टाईलों से . भुरभुरापन न दिखे तो मुझे अब फर्क नहीं पड़ता इसके भुरभुरे अस्तित्व से भी क्योंकि अब यह मकान बिकने वाला है
ReplyDeletebahut hi sundar rachna ,
Vibhinn maynon se bhari panktiyan..
ReplyDeleteJarjar makan,rishte, in sabko to dhanka bhi ja sakta hai...jarjar shasheer kaise dhanke? Jarjar man kaise chhupyan?
adbhut samvedanaye.
ReplyDeleteGahan Abhivyakti...Bahut Sundar!!
ReplyDeletebahut achha likha
ReplyDeleteभुरभुरापन न दिखे तो
ReplyDeleteमुझे अब फर्क नहीं पड़ता
इसके भुरभुरे अस्तित्व से भी
क्योंकि अब
यह मकान बिकने वाला
bahut kuch samjha rahi hei ye panktiyan.....jawab nahi apka.....dil ko chu gayi
बहुत ही संवेदनशील रचना है....बहुत अच्छी प्रस्तुति ...बधाई
ReplyDeleteओह! जाने क्यूँ एक टीस सी उठी!
ReplyDeleteफर्क नहीं पड़ता अब भुरभुरेपन से क्यूंकि अब बिकने वाला है ....
ReplyDeleteउगते सूरज को ही तो सब सलाम करते हैं ...!!
रंग दो -
ReplyDeleteदर्द की हर लकीर को
मुस्कराते हुए रंगों से..
वाह बहुत बढ़िया! गहरे एहसास के साथ आपने शानदार रचना लिखा है! आज का ज़माना तो ऐसा हो गया है कि लोग बाहर से अच्छे दिखते हैं पर अन्दर झांक कर देखा जाये तो ख़ुद आश्चर्य हो जायेंगे ठीक उसी तरह से लोग बाहर का रंग करवाने में ज़्यादा दिलचस्पी रखते हैं चाहे घर के अन्दर कितनी ही गंदगी क्यूँ न हो! अद्भुत सुन्दर रचना! बधाई!
bahut khoob
ReplyDeleteअब ये मकान बिकने वला है ... कुछ इसी तरह जब शेरीर भी बुढाने लगता है ... कोई परवा नही करता... गहरे ज़ज्बात हैं ...
ReplyDeleteवाह वर्मा जी इतने सरल शब्दों में इतनी गूढ़ बात अहम् की भावना में शून्य होती संवेदनाये
ReplyDeleteसादर
प्रवीण पथिक
9971969084
बहुत ही संवेदनशील रचना है....बहुत अच्छी प्रस्तुति ...बधाई
ReplyDelete..सुन्दर भाव, प्रभावशाली रचना !!!!!
ReplyDeleteआज की कविता ना सिर्फ एक कविता है बल्कि एक दर्शन का अध्याय है.. लोग द्विअर्थी की बात करते हैं लेकिन ये बहुअर्थी कविता है वो भी सभी अच्छे मायनों में बुरे में नहीं.. आभार सर..
ReplyDeletekai kai arth de rahi hai ye kavita... bahut samvednaatmak... yatharth se parichit karvati yeh kavita rula gai...
ReplyDeleteसरल शब्दों में भावपूर्ण रचना ....आभार
ReplyDeleteAap ghajab ke likhte hain...
ReplyDeletepadhne wala bhi isse kai arth nikal sakta hai...ekto manushya ke soch ke hawale se...aur doosra ye ki aapka ye ghar jaise hamara desh hai...
shabdon ka chamatkar hai!
बहुत दूर की बात कही है। शब्दों के पेंटर ने।
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