Friday, March 26, 2010

यह मकान बिकने वाला है

इन दीवारों पर

चढ़ा दो

एक और कोट,

नजर नहीं आना चाहिए

इन दीवारों का

कोई खोट.

हो सके तो ढक देना

उस

उखड़े हुए पलस्तर को भी,

छुपा दो उन संत्रासों को

जो इनके जिस्म पर

कील गाड़ने के कारण उगे हैं.

रंग दो -

दर्द की हर लकीर को

मुस्कराते हुए रंगों से, 

दिखे नहीं

उन ईंटों की भोथरी शक्लें

जो नींव से जुड़ी हैं

ढक दो

इनकी जर्जरता को

सुन्दर लहरदार टाईलों से

.

भुरभुरापन न दिखे तो

मुझे अब फर्क नहीं पड़ता

इसके भुरभुरे अस्तित्व से भी

क्योंकि अब

यह मकान बिकने वाला है

26 comments:

  1. मानवीय संवेदनाएं भी आज कल ऐसी हो गई है लोग बाहर से रंग रोगन करवा कर अंदर की गन्दगी को छुपाने में लगे हुए हैं

    बहुत बढ़िया भाव

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  2. बहुयामी पंक्तियाँ कितने विषयों पर सटीक उतरती है यह कविता किसी के लिए भी हो सकती है ..एक नगर वधु का दर्द ,एक पुराना शहर या एक टूटन की कगार पर खड़ा रिश्ता

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  3. बहुत खूब, वर्मा जी
    ..........फर्क नहीं पड़ता
    क्योंकि यह मकान अब बिकने वाला है !
    इटली के खरीददार तैयार बैठे है !!!!

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  4. बढ़िया लिखा है वर्मा जी । मनुष्य की सोच अब ऐसी ही हो गई है।

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  5. गहरे एहसास...प्रभावशाली प्रस्तुति है

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  6. क्या कहूँ...आह या वाह...
    निःशब्द कर दिया इस अद्भुद रचना ने....

    अतिसुन्दर ,अद्वितीय !!!

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  7. - दर्द की हर लकीर को मुस्कराते हुए रंगों से, दिखे नहीं उन ईंटों की भोथरी शक्लें जो नींव से जुड़ी हैं ढक दो इनकी जर्जरता को सुन्दर लहरदार टाईलों से . भुरभुरापन न दिखे तो मुझे अब फर्क नहीं पड़ता इसके भुरभुरे अस्तित्व से भी क्योंकि अब यह मकान बिकने वाला है
    bahut hi sundar rachna ,

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  8. Vibhinn maynon se bhari panktiyan..
    Jarjar makan,rishte, in sabko to dhanka bhi ja sakta hai...jarjar shasheer kaise dhanke? Jarjar man kaise chhupyan?

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  9. भुरभुरापन न दिखे तो

    मुझे अब फर्क नहीं पड़ता

    इसके भुरभुरे अस्तित्व से भी

    क्योंकि अब

    यह मकान बिकने वाला


    bahut kuch samjha rahi hei ye panktiyan.....jawab nahi apka.....dil ko chu gayi

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  10. बहुत ही संवेदनशील रचना है....बहुत अच्छी प्रस्तुति ...बधाई

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  11. ओह! जाने क्यूँ एक टीस सी उठी!

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  12. फर्क नहीं पड़ता अब भुरभुरेपन से क्यूंकि अब बिकने वाला है ....
    उगते सूरज को ही तो सब सलाम करते हैं ...!!

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  13. रंग दो -
    दर्द की हर लकीर को
    मुस्कराते हुए रंगों से..
    वाह बहुत बढ़िया! गहरे एहसास के साथ आपने शानदार रचना लिखा है! आज का ज़माना तो ऐसा हो गया है कि लोग बाहर से अच्छे दिखते हैं पर अन्दर झांक कर देखा जाये तो ख़ुद आश्चर्य हो जायेंगे ठीक उसी तरह से लोग बाहर का रंग करवाने में ज़्यादा दिलचस्पी रखते हैं चाहे घर के अन्दर कितनी ही गंदगी क्यूँ न हो! अद्भुत सुन्दर रचना! बधाई!

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  14. अब ये मकान बिकने वला है ... कुछ इसी तरह जब शेरीर भी बुढाने लगता है ... कोई परवा नही करता... गहरे ज़ज्बात हैं ...

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  15. वाह वर्मा जी इतने सरल शब्दों में इतनी गूढ़ बात अहम् की भावना में शून्य होती संवेदनाये
    सादर
    प्रवीण पथिक
    9971969084

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  16. बहुत ही संवेदनशील रचना है....बहुत अच्छी प्रस्तुति ...बधाई

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  17. ..सुन्दर भाव, प्रभावशाली रचना !!!!!

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  18. आज की कविता ना सिर्फ एक कविता है बल्कि एक दर्शन का अध्याय है.. लोग द्विअर्थी की बात करते हैं लेकिन ये बहुअर्थी कविता है वो भी सभी अच्छे मायनों में बुरे में नहीं.. आभार सर..

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  19. kai kai arth de rahi hai ye kavita... bahut samvednaatmak... yatharth se parichit karvati yeh kavita rula gai...

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  20. सरल शब्दों में भावपूर्ण रचना ....आभार

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  21. Aap ghajab ke likhte hain...

    padhne wala bhi isse kai arth nikal sakta hai...ekto manushya ke soch ke hawale se...aur doosra ye ki aapka ye ghar jaise hamara desh hai...

    shabdon ka chamatkar hai!

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  22. बहुत दूर की बात कही है। शब्दों के पेंटर ने।

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