धरती के माथे पर
खींचते रहे तुम
अनगिनत लकीरें;
लहलहा उठीं रोटियाँ
अधजली; अधपकी और
पकी रोटियाँ
वे तुम्हारे उगाये रोटियों में से
अधजली और अधपकी
तुम्हें खैरात में देते रहे,
और पकी रोटियों को
’स्विस बैंक’ का रास्ता दिखा दिया
तुम सपाट माथा लिये
चुपचाप देखते रहे; चमत्कृत से
रोटियों के सफर को.
तलाश में क्यों हो
किसी शिल्पकार की अगुवाई का
अपने कुदाल से
खुद ही क्यों नही खींच देते
अपने माथे पर
त्योरियों की लकीरें
ताकि तैनात कर सको
इन्हें हर उस रास्ते पर
जिनसे होकर
इन रोटियों का सफर होता है
~~
अधजली और अधपकी
ReplyDeleteतुम्हें खैरात में देते रहे
और पकी रोटियों को
’स्विस बैंक’ का रास्ता दिखा दिया
बहुत खुब वर्मा जी-यही हो रहा देश मे,एक नेता तो स्विस बैंक की लिफ़्ट मे ही मर गया था-याद है ना
-आभार
वे तुम्हारे उगाये रोटियों में से
ReplyDeleteअधजली और अधपकी
तुम्हें खैरात में देते रहे,
और पकी रोटियों को
’स्विस बैंक’ का रास्ता दिखा दिया
तुम सपाट माथा लिये
चुपचाप देखते रहे; चमत्कृत से
रोटियों के सफर को.
kya kahun ab ? aap to nishabd kar dete hain.....
behtareen lafzon ke saath ek ultimate kavita .....
Verma sir, bahut hi kamaal ki aur chamatkaari rachna hai ye, aasan nahin aisi soch viksit karna... karara thappad hai ye beimaanon ke naam par..
ReplyDeleteJai Hind...
वे तुम्हारे उगाये रोटियों में से
ReplyDeleteअधजली और अधपकी
तुम्हें खैरात में देते रहे,
और पकी रोटियों को
’स्विस बैंक’ का रास्ता दिखा दिया
आपकी लेखनी को कोडा कोडा सलाम.
एक गीत याद आ गया ..हालाँकि उसका आपकी रचनासे सीधा ताल्लुक़ नही ...लेकिन वेदना के स्तरपे जैसी एक कचोट है , वो उस गीत में भी है ...'नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है .." उसमे की निम्न लिखित पंक्तियाँ विशेष याद आ गयी :
ReplyDelete" भीक में जो मोती मिले वो भी हमना लेंगे ....हमने क़िस्मत को बस में किया है .."काश हर कोई अपनी क़िस्मत को वश में कर पता ...हम बस मुँह तकते रह जाते हैं ..रोटी कोई अन्य ले जाता है..
prerana deti hui ek behtareen kavita..namskaar varma ji.
ReplyDeleteअधजली और अधपकी
ReplyDeleteतुम्हें खैरात में देते रहे,
और पकी रोटियों को
’स्विस बैंक’ का रास्ता दिखा दिया
वाह, बहुत सुन्दर !!
.........
ReplyDeleteanginat bhawon ko talwaar me parivartit kar diya aapne
वाह वर्मा जी वाह ! अद्भुत रचना लिखा है आपने! हर एक पंक्तियाँ बेहद सुंदर है! उम्दा रचना !
ReplyDeleteवे तुम्हारे उगाये रोटियों में से
ReplyDeleteअधजली और अधपकी
तुम्हें खैरात में देते रहे,
और पकी रोटियों को
’स्विस बैंक’ का रास्ता दिखा दिया
तलाश में क्यों हो
किसी शिल्पकार की अगुवाई का
अपने कुदाल से
खुद ही क्यों नही खींच देते
अपने माथे पर
त्योरियों की लकीरें
kamaal hai.. kuch kahne ko nahi mere paas...
और पकी रोटियों को
ReplyDelete’स्विस बैंक’ का रास्ता दिखा दिया
तुम सपाट माथा लिये
चुपचाप देखते रहे; चमत्कृत से
रोटियों के सफर को.
wah verma ji , bahut karara vyangya/behatareen.
वाह वाह क्या तीखा पन लिये हैआप की यह कविता,अधजली और अधपकी
ReplyDeleteतुम्हें खैरात में देते रहे
और पकी रोटियों को
’स्विस बैंक’ का रास्ता दिखा दिया
बहुत खुब जी
धन्यवाद
waah ........bahut khoob .
ReplyDeleteroti ki keemat ke liye hum hi to jimmedar hain .
ReplyDeleterenu..
सुन्दर रचना!
ReplyDeleteकल इसे चर्चा में लगा रहा हूँ!
http://anand.pankajit.com/
अधजली और अधपकी
ReplyDeleteतुम्हें खैरात में देते रहे
और पकी रोटियों को
’स्विस बैंक’ का रास्ता दिखा दिया
आपने सही कहा...आम जनता को ही जागरूक होना पड़ेगा
तलाश में क्यों हो
ReplyDeleteकिसी शिल्पकार की अगुवाई का
अपने कुदाल से
खुद ही क्यों नही खींच देते
अपने माथे पर
त्योरियों की लकीरें
एक एक शब्द चुभते हुए और हिला देने वाले
पकी रोटियों को स्विस बैंक का रास्ता दिखने वालों का ...माथे पर चढी शिकन का कुदाल से मुकाबला .....अद्भुत काव्य शिल्प ...!!
ReplyDeletenice
ReplyDeleteअधजली और अधपकी
ReplyDeleteतुम्हें खैरात में देते रहे,
और पकी रोटियों को
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति, आभार
रोटी की जददोजहद को बहुत सलीके से आपने शब्दों में पिरोया है। बधाई।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
वर्मा जी , टिप्पणी और बधाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद | आपकी ये नज्म , जहाँ तक मै समझ पा रही हूँ किसानों के लिए लिखी गयी है न ? बहुत अच्छी लिखी है |
ReplyDeleteअधजली और अधपकी
ReplyDeleteतुम्हें खैरात में देते रहे
और पकी रोटियों को
’स्विस बैंक’ का रास्ता दिखा दिया...
बहुत खुब .....!!
Aapko janmdin ki bahut bahut badhai.........
ReplyDeleteवाह! बेहतरीन!
ReplyDeleteआक्रोश व्यक्त करने का यह अंदाज लाजवाब है!!
wow ..too good...
ReplyDeleteतलाश में क्यों हो
ReplyDeleteकिसी शिल्पकार की अगुवाई का
अपने कुदाल से
खुद ही क्यों नही खींच देते
अपने माथे पर
त्योरियों की लकीरें.....
बहुत खूब कहा है वर्मा जी .......
ऐसे ही हालत रहे तो देश के राजनेता भारत माँ के माथे पर कुदाल चलाने में भी नहीं हिचकिचाएंगे ........
kishano ki badhali ka marmik chitran kiya hai apne.
ReplyDeletehattz off.
satya
बहुत सुन्दर !!
ReplyDeleteहर एक पंक्तियाँ बेहद सुंदर है!
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
सच्चाई को ब्यान करती है यह रचना ...बेहतरीन लिखा है आपने शुक्रिया
ReplyDeleteबहुत खूब!!
ReplyDeleteVartmaan katu yatharth ko bayan karti aapki rachana sachi or achhi lagi.
ReplyDeleteShubhkanayen.
रोटी उगाने वालेही रोटी से दूर हैं . रोटी के लिए तरसते हैं . अच्छा लिखा है .
ReplyDeleteवे तुम्हारे उगाये रोटियों में से
ReplyDeleteअधजली और अधपकी
तुम्हें खैरात में देते रहे,
और पकी रोटियों को
’स्विस बैंक’ का रास्ता दिखा दिया
तुम सपाट माथा लिये
चुपचाप देखते रहे; चमत्कृत से
रोटियों के सफर को.
क्या गहरी बात कही। कुछ दिन की अनुपस्थिती के लोये क्षमा चाहती हूँशुभकामनाये
Khoobsurat rachna aur sarthak lekhan ke liye badhaayi
ReplyDeleteतलाश में क्यों हो
ReplyDeleteकिसी शिल्पकार की अगुवाई का
अपने कुदाल से
खुद ही क्यों नही खींच देते
अपने माथे पर
त्योरियों की लकीरें
ताकि तैनात कर सको
इन्हें हर उस रास्ते पर
जिनसे होकर
इन रोटियों का सफर होता है
वाह!! विचारों को जागते हुए पद्य को पढ़कर बहुत अच्छा लगा
"वे तुम्हारे उगाये रोटियों में से
ReplyDeleteअधजली और अधपकी
तुम्हें खैरात में देते रहे,
और पकी रोटियों को
’स्विस बैंक’ का रास्ता दिखा दिया"
बहुत खूब !!
वे तुम्हारे उगाये रोटियों में से
ReplyDeleteअधजली और अधपकी
तुम्हें खैरात में देते रहे,
और पकी रोटियों को
’स्विस बैंक’ का रास्ता दिखा दिया
बेहतरीन व्यंग्यात्मक रचना है. शब्द-चयन देखते ही बनता है.
महावीर
वर्मा साहब,
ReplyDeleteअति-उत्तम कविता, भावपूर्ण और प्रोत्साहित करने में सफल शब्द...
Kamal ka likha hai aapne Verma ji...
ReplyDeletemere shabd iski tareef mein saath nahi de paa rahe hain..
bas..
काश खुद ही लकीरे खिच जाती ! .......लेकिन आज नहीं तो कल खिचनी ही है.....खुद से ही या खुद ही किसी शिल्पकार को गढ़ कर....
ReplyDeleteअपने कुदाल से
ReplyDeleteखुद ही क्यों नही खींच देते
अपने माथे पर
त्योरियों की लकीरें
ताकि तैनात कर सको
इन्हें हर उस रास्ते पर
जिनसे होकर
इन रोटियों का सफर होता है
सचमुच आपने भारतीय किसान के पूरे जख्म को इन पन्क्तियों में उकेर दिया है।शुभकामनायें।
पूनम
“अवसाद के दिनों में सच” के संदर्भो को बिल्कुल सही पहचाना है आपने ! सारे चित्र बस वही हिन्दी डिपार्टमेन्ट के सामने से अंग्रेजी डिपार्टमेन्ट की तरफ आने वाले, दृश्य कला संकाय के ठीक पीछॆ वाले रास्ते पर टहलते हुये मस्तिष्क मे उपजे हैं !
ReplyDelete(बी एड भी यही से किया है क्या आपने ? फिलहाल मैं कर रहा हूं !)
तलाश में क्यों हो
ReplyDeleteकिसी शिल्पकार की अगुवाई का
अपने कुदाल से
खुद ही क्यों नही खींच देते
अपने माथे पर
त्योरियों की लकीरें
ताकि तैनात कर सको
इन्हें हर उस रास्ते पर
जिनसे होकर
इन रोटियों का सफर होता है
जोश जगाने वाली पंक्तियां.
तलाश में क्यों हो
ReplyDeleteकिसी शिल्पकार की अगुवाई का
अपने कुदाल से
खुद ही क्यों नही खींच देते
अपने माथे पर
त्योरियों की लकीरें
और तैनात कर दैते उन्हें उन रास्तों पर
जिनसे होकर इन रोटियों का सफर होता है
सच्चाई को कितनी शिदद्त से पेश किया है, बहुत सुंदर ।
gajab likha hai.
ReplyDeletetalkh haqiqat ko itne khoobsurat shabdo se sajaya hai ki barbas mukh se wah wah nikalta hai.
bandhai swikaren