कभी हतप्रभ
तो कभी हताश
ढूढता है वह
अपना आकाश.
यूं तो वह
अत्यंत सहनशील है;
पथप्रदर्शकों (?) द्वारा बताए मार्ग पर
निरंतर गतिशील है,
कोल्हू के बैल सा
वृत्ताकार मार्ग के
मार्ग-दोष से बेखबर
चलता ही जा रहा है;
या शायद
बेबस और लाचार
खुद को
छलता ही जा रहा है.
कदाचित उसे पता ही नहीं है
उसके श्रम का परिणाम
आश्रित है,
वेग और विस्थापन पर.
कितना भी चले वह
उनके बताए रास्ते पर
विस्थापन तो अंततः
शून्य ही रहेगा
.
निश्चित ही
अभिशप्त इस दायरे को तोड़कर
बाहर आने को ठानेगा,
जब भी वह
श्रम-साध्य पर सरल मार्ग के
सत्य को पहचानेगा
बहुत सुन्दर रचना सर...
ReplyDeleteवृत्ताकार मार्ग के
मार्ग-दोष से बेखबर
चलता ही जा रहा है;
लाजवाब कल्पनाशीलता...
साथ ही physics bhee yaad aayi...
W= F X D
:-)
सादर.
अनु
यही तो जीवन-दर्शन है ,पर समझना उतना ही कठिन !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!
ReplyDeleteबहुत खूब सर!
ReplyDeleteसादर
निश्चित ही
ReplyDeleteअभिशप्त इस दायरे को तोड़कर
बाहर आने को ठानेगा,
जब भी वह
श्रम-साध्य पर सरल मार्ग के
सत्य को पहचानेगा
श्रम करने वाला हर दायरे को तोड़ सकता है ...सुंदर प्रस्तुति
विस्थापन तो अंततः
ReplyDeleteशून्य ही रहेगा
... sahi darshan
श्रम का मार्ग ही असली मार्ग है ...
ReplyDeleteइस जीवन दर्शन को समझने में बहुत समय लग जाता है ... गहरा चिंतन ...
बेहद गहन जीवन दर्शन
ReplyDeleteगहन भाव संजोये हुए बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteकल 04/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
... अच्छे लोग मेरा पीछा करते हैं .... ...
वृत्ताकार मार्ग के
ReplyDeleteमार्ग-दोष से बेखबर
चलता ही जा रहा है....
अद्भुत बिम्ब लेकर सृजित रचना...
सादर बधाई.
बहुत गहरी अभिव्यक्ति ... सार्थक रचना के लिए बधाई स्वीकारें .. !!
ReplyDeleteविस्थापन को जबरन शून्य से गुना किया जाता है ..
ReplyDelete'उसके श्रम का परिणाम
ReplyDeleteआश्रित है,
वेग और विस्थापन पर.
कितना भी चले वह
उनके बताए रास्ते पर
विस्थापन तो अंततः
शून्य ही रहेगा'
वैज्ञानिक पद्धति से जीवन दर्शन का सत्यापन अद्भुत लगा. सुंदर प्रस्तुति.
सभी इस वृत्त से बाहर आना चाहते हैं, बस कोल्हू उतारकर फेंकना पड़ेगा।
ReplyDeleteसकारात्मक रचना !!
ReplyDeletesashkt rachna..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ....!
ReplyDeleteनिश्चित ही
ReplyDeleteअभिशप्त इस दायरे को तोड़कर
बाहर आने को ठानेगा,
जब भी वह
श्रम-साध्य पर सरल मार्ग के
सत्य को पहचानेगा....................वर्मा जी आपकी कविता और इस चित्र के माध्यम से जो बात आप समझाना चाह रहे हैं उस में आप कामयाब रहे हैं ......पर आज के वक्त के हालात बदल चुके हैं ...आज मजदूरी..मेहनत करने वाले को भी पता हैं कि उसे प्रतिघंटा मजूदरी के पैसे मिलंगे ...मध्य भारत के कुछ हिस्सों को छोड़ कर ...बाकि सब जगह हालात बदल चुके हैं (अगर कुछ बुरा लगा हो तो क्षमा चाहूंगी )
बहुत सुन्दर ....!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeletebahut sundar bhavpoorn rachna..
ReplyDeleteWelcome To My New Post: बलि
निश्चित ही
ReplyDeleteअभिशप्त इस दायरे को तोड़कर
बाहर आने को ठानेगा,
जब भी वह
श्रम-साध्य पर सरल मार्ग के
सत्य को पहचानेगा
....गहन चिंतन...यही तो शाश्वत सत्य है जिसे हम समझ नहीं पाते...बहुत सुन्दर रचना....
बहुत सुन्दर!
ReplyDeletebahut umda!
ReplyDeleteनिश्चित ही
ReplyDeleteअभिशप्त इस दायरे को तोड़कर
बाहर आने को ठानेगा...
निश्चित ही बेहतर...
sundar bhavabhivyakti .aabhar
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क्या बात है ..वर्मा जी ,गजब की बात कही है ..नि:शब्द करती है रचना ..सबसे अलग शायद इसीलिए कहते है जहाँ ना पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि..,,,,,,,,,,बधाई.
ReplyDeletebahut achchi lagi......
ReplyDeleteसुंदर और खूब कही है.
ReplyDeleteसुन्दर कल्पना की है आपने जीवन के इस दर्शन को समझने की कोशिश की है मेने इस माध्यम से ।
ReplyDeletebahut achchi lagi......
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और गहरी सोच की बात है अपने जीवन के अभ्व्यक्ति के दायरे को तोड़ने की
ReplyDeleteसुन्दर एवं सहज रचना...हर आदमी इन वृत्तों से बाहर आना चाहता है..पर कुछ ही हैं जो इसके लिए श्रम कर पाते हैं...अगर मार्क्स भी आपकी कबिता को पढ़ते तो अभिभूत हो जाते...आभार !
ReplyDeleteनिश्चित ही
ReplyDeleteअभिशप्त इस दायरे को तोड़कर
बाहर आने को ठानेगा,
जब भी वह
श्रम-साध्य पर सरल मार्ग के
सत्य को पहचानेगा
गहरे भाव, सुंदर अभिव्यक्ति।
बहुत सुंदर सकारात्मक रचना...बेहतरीन पोस्ट
ReplyDelete.
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....
विस्थापन तो अंततः
ReplyDeleteशून्य ही रहेगा...
sach hai
निश्चित ही
ReplyDeleteअभिशप्त इस दायरे को तोड़कर
बाहर आने को ठानेगा,
जब भी वह
श्रम-साध्य पर सरल मार्ग के
सत्य को पहचानेगा....aakhir kab ..pahchaan kar bhee in haaloatom mein pahchaan nahi paayega