Thursday, May 2, 2019

वैयाकरण’ की साजिश


तुमने कहा --
रूको, मत जाओ
मैनें समझा --
रूको मत, जाओ
और मैं
चुपचाप चला आया था -- उस दिन
बिना किसी शोर
बिना किसी तूफान
कितना भयानक
ज़लज़ला आया था -- उस दिन
काश !
तुमने देखा होता
चट्टान का खिसकना
काश !
तुमने भी देखा होता
वह मंजर
जब एक मकान
ढहा था अधबना
और
उड़ने को आतुर एक कबूतर
दब गया था
शायद यह --
‘वैयाकरण’ की साजिश थी

8 comments:

Unknown said...

Waah sir

M VERMA said...

धन्यवाद

अरुण चन्द्र रॉय said...

सुन्दर कविता

M VERMA said...

धन्यवाद

Sweta sinha said...

ओह्ह्ह.. वाहह्हह... हृदयस्पर्शी रचना।
बिंब तो क़माल का है... 👌👌

M VERMA said...

शुक्रिया

Shah Nawaz said...

वाह क्या खूब कहा...

M VERMA said...

शुक्रिया